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________________ युगवीर-निवन्धारली वातको कभी छिपाना नहीं चाहता-अवसर मिलनेपर उसे बडी निर्भयताके साथ प्रगट कर देता है और असत्य उल्लेखका सस्त विरोधी हूँ। ऐसी हालतमे उक्त समालोचनाको पटकर मेरा आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक था। ___मुझे यह खयाल पैदा हुआ कि कही अनजानमे तेरेसे कोई गलत उल्लेख तो नही हो गया, यदि ऐसा हुआ हो तो फौरन अपनी भूलको स्वीकार करना चाहिये, और इसलिये मैने बडी सावधानीसे अपनी पुस्तकके साथ समालोचनाको पुस्तकको खूब ही गौरसे पढा और उल्लेखित ग्रन्थो आदिपरसे उसकी यथेष्ट जांच-पड़ताल भी की। अन्तको मैं इस नतीजेपर पहुंचा हूँ कि समालोच्च पुस्तकमे एक भी ऐसी बात नही है जो खास तौरपर आपत्तिके योग्य हो। जिनसेनाचार्य-कृत हरिवशपुराणके अनुसार, 'देवको' अवश्य ही वसुदेवकी भतीजी' थी, परन्तु उसे "सगी भतीजी" लिखना यह समालोचकजीकी निजी कल्पना और उनकी अपनी उपज है-लेखकसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, 'जरा' ज़रूर म्लेच्छकन्या थी और म्लेच्छोका वही आचार है जो आदिपुराणमे वणित हुआ है, "प्रियंगुसुन्दरी' एक व्यभिचारजातकी ही पुत्री थी, और 'रोहिणी के वरमाला डालनेके वक्त तक 'वसुदेव'के कुल और उनकी जातिका वहाँ ( स्वयवरमे) किसीको कोई पता नही था। वे एक अपरिचित तथा बाजा बजानेवालेके रूपमे ही उपस्थित थे। साथ ही, चारुदत्त सेठका वसंतसेना वेश्याको अपनी स्त्री बना लेना भी सत्य है । और इन सब बातोको आगे चलकर खूब स्पष्ट किया जायगा। अन्यथाकथन और समालोचकके कर्त्तव्यका अनिर्वाह समालोचनामे पुस्तकपर बड़ी बेरहमीके साथ कुन्दी छुरी ही
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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