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________________ ५१६ युगवीर-निवन्धावली निरसन एव कदर्थन हो जानेपर जब वे प्रमाण-कोटिमे स्थिर नही रह सके-परीक्षाके द्वारा प्रमाणाभास करार दे दिये गये-तव उनके बलपर प्रतिष्ठित होनेवाली शंकाओमे यद्यपि कोई खास सत्त्व या दम नही रहता, विज्ञ पाठकोद्वारा ऊपरके विवेचनको रोशनीमे उनका सहज ही समाधान हो जाता है, फिर भी चूंकि श्रीबोहराजीका अनुरोध है कि मैं उनकी शकाओका समाधान करके उसे भी अनेकान्तमें प्रकाशित कर दूं और तदनुसार मैने अपने इस उत्तर-लेखके प्रारम्भमे यह सूचित भी किया था कि "उनकी शंकाओंका समाधान आगे चलकर किया जायगा, यहाँ पहले उनके प्रमाणोपर एक दृष्टि डाल लेना और यह मालूम करना उचित जान पड़ता है कि वे कहाँ तक उनके अभिमत. विषयके समर्थक होकर प्रमाणकोटिमे ग्रहण किये जा सकते हैं।" अत: यहाँ बोहराजीकी प्रत्येक शकाको क्रमश उद्धृत करते हुए उसका यथावश्यक सक्षेपमे ही समाधान नीचे प्रस्तुत किया जाता है : शंका १–दान, पूजा, भक्ति, शील, सयम, महाव्रत, अणुव्रत आदिके परिणामोसे कर्मोका आस्रव बन्ध होता है या सवर निर्जरा ? समाधान-इन दान, पूजा और व्रतादिकके परिणामोका स्वामी जब सम्यग्दृष्टि होता है, जो कि मेरे लेख में सर्वत्र विवक्षित रहा है, तब वे शुभ परिणाम अधिकाशमे सवर-निर्जराके हेतु होते हैं, आस्रवपूर्वक बन्धके हेतु कम पड़ते हैं, क्योकि उस स्थितिमे वे सराग सम्यक्चारित्रके अग कहलाते हैं। सम्यक् चारित्रके साथ जितने अशोमे रागभाव रहता है उतने अशोमे ही कर्मका बन्ध होता है, शेष सब चारित्रोके अशोसे कर्मबन्धन नहीं
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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