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________________ ५१४ युगवीर- निवन्धावली मोत-प्रोत है और जिससे हजारो जैनग्रन्थ भरे हुए हैं । श्री कुन्दकुन्दाचार्य 'समयसार' तकमे आत्मा के साथ कर्म के बन्धनकी चर्चाएँ करते हैं और एक जगह लिखते हैं कि 'जिस प्रकार जीवके परिणामका निमित्त पाकर पुद्गल कर्मरूप परिणमते हैं उसी प्रकार पुद्गलकर्मोका निमित्त पाकर जीव भी परिणमन करता है' और एक दूसरे स्थान पर ऐसा भाव व्यक्त करते हैं कि 'प्रकृतिके अर्थ चेतनात्मा उपजता विनशता है, प्रकृति भी चेतनके अर्थ उपजती विनशती है, इस तरह एक दूसरेके कारण दोनोका बन्ध होता है और इन दोनो सयोगसे ही संसार उत्पन्न होता है । यथा - "जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंते । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जोवो वि परिणमइ ||८०||" "चेया उ पयडी अठ्ठे उप्पज्जइ पयडी वि य चेयठ्ठे उप्पज्जइ एवं बंधो उ दुहं वि अण्णोष्णपच्चया हवे | अपणो पयडीए य संसारो तेण जायए ||३१३|| " परन्तु कानजी महाराज अपने उक्त वाक्यो- द्वारा कर्मका आत्मा पर कोई असर ही नही मानते, आत्माको विकार और सम्बन्धसे रहित प्रतिपादित करते हैं और यह भी प्रतिपादित करते हैं कि भगवानकी वाणी अवद्धस्पृष्ट एक शुद्धात्माको बतलाती है ( फलत. कर्मबन्धनसे युक्त अशुद्ध भी कोई आत्मा है इसका वह निर्देश ही नही करती ) । साथ ही उनका यह भी विधान है कि आत्मा शुद्ध विज्ञानघन है, वह शरीरादिकी ( मन-वचनकायकी ) कोई क्रिया नही करता - अर्थात् उनके परिणमनमें कोई निमित्त नही होता और न मन-वचन-काय की क्रियासे उसे किसी प्रकार धर्मकी प्राप्ति ही होती है । यह सब जैन आगमो अथवा विणस्सर । विणस्स ||३१२||
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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