SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ४९९ करके भी प० टोडरमलजीने कुछ वाक्य कहे हैं, परन्तु वे लोग दृष्टिविकारके कारण चूंकि मिथ्यादृष्टि होते हैं अत उन्हे लक्ष्य करके कहे गये वाक्य भी अपने विषयसे सम्बन्ध नही रखते और इसलिये वे प्रमाण कोटिमे नही लिये जा सकते — उन्हे भी प्रमाणबाह्य अथवा प्रमाणाभास समझना चाहिये । और उनसे भी कुछ भोले भाई ही ठगाये जा सकते हैं - दृष्टिविकारसे रहित आगमके ज्ञाता व्युत्पन्न पुरुप नही । प० टोडरमल्लजीके वाक्य जिन रागादिके सर्वथा निपेधको लिये हुए हैं वे प्राय वे रागादिक है जो दृष्टिविकारके शिकार हैं तथा जो समयसारकी उपर्युल्लिखित गाथा न०२०१, २०२ में विवक्षित हैं और जिनका स्पष्टीकरण स्वामी समन्तभद्रके युक्त्यनुशासनकी 'एकान्तधर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहंकृतिजा जनानाम्' इत्यादि कारिकाके आधारपर पिछले लेखमें, कानजीस्वामीपर आनेवाले एक आरोपका परिमार्जन करते हुए, प्रस्तुत किया गया था – वे रागादिक नही हैं जो कि एकान्तधर्माभिनिवेशरूप मिथ्यादर्शनके अभावमे चारित्रमोहके उदयवश होते हैं और जो ज्ञानमय होनेसे न तो जीवादिकके परिज्ञानमे बाधक हैं और न समता - वीतरागता की साधनामें ही बाधक होते हैं । इसीसे जिनशासनमे सरागचारित्रकी उपादेयताको अगीकार किया गया है। यहाँ पर एक प्रश्न उठ सकता है और वह यह कि जब सम्यक्चारित्रका लक्ष्य 'रागद्वेपकी निवृत्ति' है, जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, तब सरागचारित्र उसमे सहायक कैसे हो सकता है ? वह तो रागसहित होनेके कारण लक्ष्य की सिद्धिमे उल्टा वाधक पड़ेगा। परन्तु बात ऐसी नही है, इसके लिये 'कटको - न्मूलन' सिद्धान्तको लक्ष्यमे लेना चाहिये । जिस प्रकार पैरमे चुभे
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy