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________________ ४८० युगवीर-निवन्धावली अविनाभाव-सम्बन्धको लिये हुए, एक दूसरेके मित्र-रूपमे मानते तथा प्रतिपादन करते आये हैं, जब कि कानजी महाराजकी नीति कुछ दूसरी ही जान पडती है । वे अपने प्रवचनोमे निश्चय अथवा द्रव्याथिकनयके इतने एकान्त पक्षपाती बन जाते हैं कि दूसरे नयके वक्तव्यका विरोध तक कर बैठते हैं-उसे शत्रुके वक्तव्यरूपर्ने चित्रित करते हुए 'अधर्म' तक कहनेके लिए उतारू हो जाते हैं। यह विरोध ही उनकी सर्वथा एकान्तताको लक्षित कराता है और उन्हे श्री कुन्दकुन्द तथा स्वामी समन्तभद्र-जैसे महान् आचार्योके उपासकोकी कोटिसे निकाल कर अलग करता है अथवा उनके वैसा होनेमे सन्देह उत्पन्न करता है। और इसीलिए उनका अपनी कार्य-सिद्धिके लिए कुन्दकुन्दादिकी दुहाई देना प्राय वैसा ही समझा जाने लगा है जैसा कि काग्रेस सरकार गॉधीजीके विषयमे कर रही है-वह जगह-जगह गाँधीजी की दुहाई देकर और उनका नाम ले-लेकर अपना काम तो निकालती है परन्तु गाँधीजीके सिद्धान्तोको वस्तुत मान कर देती हुई नजर नही आती। कानजी स्वामी और उनके अनुयायियोकी प्रवृत्तियोको देखकर कुछ लोगोको यह भी आशका होने लगी है कि कही जैनसमाजमे यह चौथा सम्प्रदाय तो कायम होने नही जा रहा है, जो दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासी सम्प्रदायोकी कुछकुछ ऊपरी बातोको लेकर तीनोके मूलमे ही कुठाराघात करेगा और उन्हे आध्यात्मिकताके एकान्त गर्तमे धकेल कर एकान्तमिथ्यादृष्टि बनानेमे यत्नशील होगा, श्रावक तथा मुनिधर्मके रूपमे सच्चारित्र एव शुभ भावोका उत्थापन कर लोगोको केवल 'आत्मार्थी' बनानेकी चेष्टामे सलग्न रहेगा, उसके द्वारा शुद्धात्मा
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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