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________________ ४७८ युगवीर-निवन्धावली अटका रहेगा तो शुद्धत्वके निकट तो रहेगा--अन्यथा शुभसे किनारा करनेपर तो इधर-उधर अशुभ राग तथा द्वेशादिकमे भटकना पडेगा और फलस्वरूप अनेक दुर्गतियोमे जाना होगा। इसीसे श्रीपूज्यपादाचार्यने इष्टोपदेशमें ठीक कहा है : वर व्रतैः पदं देवं नाऽव्रतैर्वत नारकम् । छायाऽऽतपस्थयोर्भेट. प्रतिपालयतोर्महान् ॥ ३ ॥ अर्थात्-व्रतादि शुभ राग-जनित पुण्यकर्मोके अनुष्ठान द्वारा देवपद ( स्वर्ग ) का प्राप्त करना अच्छा है, न कि हिंसादि अव्रतरूप पापकर्मोको करके नरक-पदको प्राप्त करना। दोनोमे वहुत बडा अन्तर उन दो पथिकोके समान है जिनमेसे एक छायामे स्थित होकर सुखपूर्वक अपने साथीकी प्रतीक्षा कर रहा है और दूसरा वह है जो तेज धूपमे खडा हुआ अपने साथीकी बाट देख रहा है और आतपजनित कष्ट उठा रहा है। साथीका अभिप्राय यहाँ उस सुद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी सामग्रीसे है जो मुक्तिकी प्राप्तिमे सहायक अथवा निमित्तभूत होती है। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने भी इसी बातको मोक्खपाहडकी 'वरं वय-तवेहि सग्गो' इत्यादि गाथा न० २५ मे निर्दिष्ट किया है। फिर शुभमे अटकनेसे डरनेकी ऐसी कौनसी बात है जिसकी चिन्ता कानजी महाराजको सताती है ? खासकर उस हालतमे जबकि वे नियतिवादके सिद्धान्तको मान रहे हैं और यह प्रतिपादन कर रहे हैं कि जिस द्रव्यकी जो पर्याय जिस क्रमसे जिस समय होनेकी है वह उस क्रमसे उसी समय होगी उसमें किसी भी निमित्तसे कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। ऐसी स्थितिमे शुभभावोको अधर्म बतलाकर उनको मिटाने अथवा छुडानेका उपदेश देना भी व्यर्थका प्रयास जान पडता है। ऐसा करके वे उलटा अशुभ-राग-द्वेषादि
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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