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________________ ४७४ युगवीर-निवन्धावली मैं तो यहाँ सिर्फ इतना ही कहूँगा कि यह सब कथन जिनशासनके एकागी अवलोकन अथवा उसके स्वरूप-विषयक अधूरे एव विकृत ज्ञानका परिणाम है। जब श्री कुन्दकुन्द तथा स्वामी समन्तभद्र जैसे महान् एवं पुरातन आचार्य, जो कि जैनधर्मके आधारस्तम्भ माने जाते हैं, पूजा-दान-व्रतादिकको धर्मका अग बतलाते हैं, तब जैनमत और जिनेश्वरदेवका वह कौनसा वाक्य हो सकता है जो धर्मरूपमे इन क्रियाओका सर्वथा उत्थापन करता हो ? कोई भी नही हो सकता। शायद इसीसे वह प्रमाणमे उपस्थित नही किया जा सका। इतने पर भी जो विद्वान् आचार्य पूजा-दान-व्रतादिको 'धर्म' प्रतिपादन करते हैं उन्हे 'लौकिक जन" तथा "अन्यमती" तक कहनेका दु साहस किया गया है, यह बडा ही चिन्ताका विषय है। इस विषयमे कानजी महाराजके शब्द इस प्रकार है - "कोई-कोई लौकिकजन तथा अन्यमती कहते हैं कि पूजादिक तथा व्रत-क्रिया सहित हो वह जैनधर्म है। परन्तु ऐसा नहीं है। देखो, जो जीव पूजादिके शुभरागको धर्म मानते है, उन्हें “लौकिक जन" और "अन्यमती" कहा है।" . इन शब्दोको लपेटने, जाने-अनजाने, श्रीकुन्द-कुन्द, समन्तभद्र, - उमास्वामी, सिद्धसेन, पूज्यपाद, अकलक और विद्यानन्दादि सभी महान् आचार्य आ जाते हैं, क्योकि इनमें से किसीने भी शुभभावोका जैनधर्ममे निपेध नही किया है, प्रत्युत इसके, उन्होने अनेक प्रकारसे उनका विधान किया है। ऐसे चोटीके महान् आचार्योंको भी । “लौकिकजन" तथा "अन्यमतो" बतलाना दुःसाहसकी ही नही, : किन्तु धृष्टताकी भी हद हो जाती है। ऐसी अविचारित एवं वेतुकी वचनावली शिष्टजनोंको बहुत ही अखरती तथा असह्य जान पड़ती है।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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