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________________ कानजी स्वामी और जिनशासन ४६७ जैनधर्मके कार्य नही । मैं आपको पक्का जैन समझता है, आपके कार्यों को रागमिश्रित होने पर भी जैनधर्मके कार्य मानता हूँ और यह भी मानता है कि उनके द्वारा जैनधर्म तथा समाजकी कितनी ही सेवा हुई है । इसीसे आपके व्यक्तित्व के प्रति मेरा बहुमान है - आदर है और मैं आपके सत्सगको अच्छा समझता है, परन्तु फिर भी सत्य के अनुरोध से मुझे यह मानने तथा कहनेके लिये बाध्य होना पडता है कि आपके प्रवचन बहुधा एकान्तकी ओर ढले होते हैं— उनमे जाने-अनजाने वचनाऽनयका दोष बना रहता है । जो वचन - व्यवहार समीचीन नय - विवक्षाको साथमे लेकर नही होता अथवा निरपेक्षनय या नयोका अवलम्बन लेकर प्रवृत्त किया जाता है वह वचनानयके दोपसे दूषित कहलाता है 1 स्वामी समन्तभवने अपने 'युक्त्यनुशासन' ग्रन्थमें यह प्रकट करते हुए कि वीरजिनेन्द्रका अनेकान्त - शासन सभी अर्थक्रियार्थी जनोके द्वारा अवश्य आश्रयणीय ऐसी एकाधिपतित्वरूप लक्ष्मीका स्वामी होने की शक्ति से सम्पन्न है, फिर भी वह जो विश्वव्यापी नही हो रहा है उसके कारणोमें प्रवक्ताके इस वचनाऽनय दोषको प्रधान एव असाधारण बाह्य कारणके रूपमे स्थित बतलाया है ' – कलिकाल तो उसमे साधारण बाह्य कारण है और यह ठीक ही है, प्रवक्ताओके प्रवचन यदि वचनानय के दोष से रहित हो और वे सम्यक् नयविवक्षा के द्वारा वस्तुतत्त्वको स्पष्ट एव विशद करते हुए बिना किसी अनुचित पक्षपातके श्रोताओंके सामने रक्खे जायँ तो उनसे श्रोताओका कलुषित आशय भी बदल सकता है और तब कोई ऐसी खास वजह नही रहती १, क्वाल. कालर्वा कलुषाशयो वा श्रीतु प्रवक्तुवचनाऽनयो वा । स्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तरपवादहतु ॥ ५ ॥
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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