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________________ कानजी स्वामी और जिनशासन ४६३ वह क्षायिक सम्यक्त्व और स्वात्मानुभव मौजूद है परन्तु प्रस्तुत वीतरागता पास नही फटकती, नित्य ही नरक-पर्यायाश्रित अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम और अशुभतर देह वेदना तथा विक्रियाका शिकार बना रहना होता है, साथ ही दु खोको समभाव-विहीन होकर सहना पडता है। इसी तरह सम्यग्दृष्टि देव, जिनके क्षायिक सम्यक्त्व तक होता है, अपने आत्माका अनुभव तो रखते हैं, परन्तु प्रस्तुत वीतरागता उनके भी पास नही फटकती है-वे सदा रागादिकमे फंसे हुए, अपना जीवन प्राय आमोद-प्रमोद एव क्रीडाओमें व्यतीत करते हैं, पर्यायधर्मके कारण चरित्रके पालनेमे सदा असमर्थ भी बने रहते हैं, फिर भी चारित्रसे अनुराग तथा धर्मात्मामोसे प्रेम रखते हैं और उनमेसे कितने ही जैन तीर्थंकरोके पचकल्याणकके अवसरो पर आकर उनके प्रति अपना बडा ही भक्तिभाव प्रदर्शित करते हैं, ऐसा जैनशास्त्रोसे जाना जाता है। इस तरह यह स्पष्ट है कि शुद्धात्माके अनुभवसे वीतरागताका होना लाजिमी नही है और इसलिए कानजी स्वामीका एकमात्र अपने शुद्धात्माके अनुभवसे वीतरागताका होना वतलाना कोरा एकान्त है। . .. इसी तरह 'वीतरागता ही जैनधर्म है, जिससे रागकी उत्पत्ति हो वह जैनधर्म नही है' यह कथन भी कोरी एकान्त कल्पनाको लिये हुए है, क्योकि इससे केवल वीतरागता अथवा सर्वथा वीतरागता ही जैनधर्मका एकमात्र रूप रहकर उस समीचीन चरित्रधर्मका विरोध आता है जिसका लक्षण अशुभसे निवृत्ति तथा शुभमें प्रवृत्ति है, जो व्रतो, समितियो तथा गुप्तियो आदिके रूपमे. 'स्थित है और जिसका जिनेन्द्रदेवने व्यवहारंनयकी दृप्टिसे अपने
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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