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________________ २८ कानजी स्वामी और जिनशासन (२) उस जिनशासनका क्या रूप हैं जिसे उस द्रष्टाके द्वारा पूर्णत देखा जाता है ? (३) वह जिनशासन श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र, उमास्वाति और अकलक-जैसे महान् आचार्योंके द्वारा प्रतिपादित अथवा संसूचित जिनशासनसे क्या कुछ भिन्न है ? (४) यदि भिन्न नहीं है तो इन सबके द्वारा प्रतिपादित एव ससूचित जिनशासनके साथ उसकी सगति कैसे बैठती है ? (५) इस गाथामे 'अपदेससतमज्झ' नामक जो पद पाया जाता है और जिसे कुछ विद्वान् 'अपदेससुत्तमज्झ' रूपसे भी उल्लेखित करते हैं, उसे 'जिणसासण' पदका विशेषण बतलाया जाता है और उससे द्रव्यश्रुत तथा भावश्रुतका भी अर्थ लगाया जाता है, यह सव कहाँ तक सगत है अथवा पदका ठीक रूप, अर्थ और सम्वन्ध क्या होना चाहिए ? (६ ) श्रीअमृतचन्द्राचार्य इस पदके अर्थक विपयमे मौन हैं और जयसेनाचार्यने जो अर्थ किया है वह पदमे प्रयुक्त हुए शब्दोको देखते हुए कुछ खटकता हुआ जान पडता है, यह क्या ठीक है अथवा उस अर्थमे खटकने-जैसी कोई बात नही है ? (७) एक सुझाव यह भी है कि यह पद 'अपवेससतमज्झ' ( अप्रवेशसान्तमध्य ) है, जिसका अर्थ अनादिमध्यान्त होता है और यह 'अप्पाण ( आत्मान ) पदका विशेषण है, न कि 'जिणसासण' पदका । शुद्धात्माके लिये स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्ड (६) में और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथमद्वात्रिंशिका ) मे 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयोग किया है। समयसारके एक कलशमे अमृतचन्द्राचार्यने भी 'मध्याद्यन्तविभागमुक्त' जैसे शब्दो-द्वारा इसी वातका उल्लेख किया है।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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