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________________ समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश ४१९ सातवें, शूद्रोका समवसरणमे जाना जब अध्यापकजीके उपस्थित किये हुए हरिवशपुराणके प्रमाणसे ही सिद्ध है तब वे लोग वहाँ जाकर भगवानकी पूजा-वन्दनाके अनन्तर उनकी दिव्यवाणीको भी सुनते हैं, जो सारे समवसरणमे व्याप्त होती है, और उसके फलस्वरूप श्रावकके व्रतोको भी ग्रहण करते हैं, जिनके ग्रहणका पशुओको भी अधिकार है, यह स्वतः सिद्ध हो जाता है। फिर आदिपुराण-उत्तरपुराणके आधारपर उसको अलगसे सिद्ध करनेकी जरूरत भी क्या रह जाती है ? कुछ भी नही। इसके सिवाय, किसी कथनका किसी ग्रन्थमे यदि विधि तथा प्रतिषेध नही होता तो वह कथन उस ग्रन्थके विरुद्ध नहीं कहा जाता । इस बातको आचार्य वीरसेनने धवलाके क्षेत्रानुयोगद्वारमै निम्न वाक्य-द्वारा व्यक्त किया है___ "ण च सत्तरज्जुबाहल्लं करणाणिओगसुत्तविरुद्ध, तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो।" (पृ० २२) अर्थात्-लोककी उत्तरदक्षिण सर्वत्र सात राजु मोटाईका जो कथन है वह 'करणानुयोगसूत्र के विरुद्ध नहीं है, क्योकि उस सूत्रमे उसका यदि विधान नही है तो प्रतिषेध भी नहीं है। __ शूद्रोका समवसरणमे जाना, पूजावन्दना करना और श्रावकके व्रतोका ग्रहण करना इन तीनो बातोका जब आदिपुराण तथा उत्तरपुराणमे स्पष्टरूपसे कोई विधान अथवा प्रतिपेध नही है तब इनके कथनको आदिपुराण तथा उत्तरपुराणके विरुद्ध नही कहा जा सकता। वैसे भी इन तीनो बातोका कथन आदिपुराणादिकी रीति, नीति और पद्धतिके विरुद्ध नहीं हो सकता, क्योकि आदिपुराणमे मनुष्योकी वस्तुत. एक ही जाति मानी है,
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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