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________________ ४१४ युगवीर-निवन्धावली परिणाम है तो अध्यापकजीको चैलेजका अङ्ग होनेके कारण उसे अगले अङ्कमे सुधारना चाहिये था अथवा कमसेकम सुधारकशिरोमणिके पास तो अपने चैलेजकी एक शुद्ध कापी भेजनी चाहिये थी, परन्तु चैलेजके नामपर यदि यो ही वाहवाही लूटनी हो तो फिर ऐसी बातोकी तरफ ध्यान तथा उनके लिए परिश्रम भी कौन करे ? अस्तु उक्त श्लोक अपने शुद्धरूपमे इस प्रकार है : पापशीला विकुर्वाणाः शूद्राः पाखण्ड-पाटवाः। विकलांगेन्द्रियोद्धान्ताः परियन्ति वहिस्ततः ॥१७॥ इसमे शूद्रोके समवसरणमे जानेका कही भी स्पष्टतया कोई निपेध नही है, जिसकी अध्यापकजीने अपने चैलेंजमे घोषणा की है। मालूम होता है अध्यापकजीको प० गजाधरलालजीके गलत अनुवाद अथवा अर्थपरसे कुछ भ्रम हो गया है, उन्होने ग्रन्थके पूर्वाऽपर सन्दर्भपरसे उसकी जाँच नही की अथवा अर्थको अपने विचारोके अनुकूल पाकर उसे जाँचनेकी जरूरत नहीं समझी, और यही सम्भवत उनकी भ्रान्ति, मिथ्या धारणा एव अन्यथा प्रवृत्तिका मूल है। प० गजाधरलालजीका हरिवंशपुराणका अनुवाद साधारण चलता हुआ अनुवाद है, इसीसे अनेक स्थलोपर बहुत कुछ स्खलित है और ग्रन्थ-गौरवके अनुरूप नही है। उन्होने अनुवादसे पहले कभी इस ग्रन्थका स्वाध्याय तक नही किया था, सीधा सादा पुराण ग्रन्थ समझकर ही वे इसके अनुवादमे प्रवृत्त हो गये थे और इससे उत्तरोत्तर कितनी ही कठिनाइयाँ झेलकर 'यथा कथञ्चित्' रूपमे इसे पूरा कर पाये थे, इसका उल्लेख उन्होने स्वय अपनी प्रस्तावना ( पृ० ४ ) मे किया है और अपनी त्रुटियो तथा अशुद्धियोके आभासको भी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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