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________________ समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश जा सकते हैं जिनमे उन विषयोका विधि या निपेध कुछ भी नही है । परन्तु ऐसे चैलेंजोका कोई मूल्य नही होता, और इसीसे अध्यापकजीका चैलेज विद्वदृष्टिमे उपेक्षणीय ही नही, किन्तु गर्हणीय भी है। तीसरे अध्यापकजीका यह लिखना कि "यदि आप इन ऐतिहासिक ग्रन्यो द्वारा शूद्रोका समोशरणमे जाना सिद्ध नहीं कर सके तो दस्साओके पूजनाधिकारका कहना आपका सर्वथा व्यर्थ सिद्ध हो जायगा" और भी विडम्बनामात्र हैं और उनके अनोखे तर्क तथा अद्भुत न्यायको व्यक्त करता है । क्योकि शूद्रोका यदि समोशरणमे जाना सिद्ध न किया जासके तो उन्हीके पूजनाधिकारको व्यर्थ ठहराना था न कि दस्साओके, जिनके विषयका कोई प्रमाण मांगा ही नही गया । यह तो वह बात हुई कि सबूत किसी विषयका और निर्णय किसी दूसरे ही विषयका । ऐसी जजीपर किसे तर्स अथवा रहम नही आएगा और वह किसके कौतुकका विषय नही बनेगी ।। यदि यह कहा जाय कि शूद्रोके पूजनाधिकारपर ही दस्साओका पूजनाधिकार अवलम्बित है-वे उनके समानधर्मा हैं तो फिर शूद्रोके स्पष्ट पूजनाधिकार-सम्बन्धी कथनो अथवा विधिविधानोको ही क्यो नही लिया जाता ? और क्यो उन्हे छोडकर शूद्रोके समवसरणमे जाने न जानेकी बातको व्यर्थ उठाया जाता है ? जैन शास्त्रोमे शूद्रोके द्वारा पूजनके उत्तम फलकी कथाएँ ही नही मिलती, बल्कि शूद्रोको स्पष्ट तौर से नित्यपूजनका अधिकारी घोपित किया गया है। साथ ही जैनगृहस्थो, अविरत-सम्यग्दृष्टियो, पाक्षिक श्रावको और व्रती श्रावको सभीको जिनपूजाका अधिकारी बतलाया गया है और शूद्र भी इन सभी कोटियोमे आते हैं ) इतना MORPHANI
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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