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________________ समवसरण, शूद्रोंका प्रवेश ४०९ अध्यापकजीका यह सब लिखना अविचारितरम्य एव घोर आपत्तिके योग्य है, जिसका खुलासा निम्न प्रकार है : प्रथम तो व्याकरणचार्यजीके वाक्यपरसे जो अर्थ स्वेच्छापूर्वक फलित किया गया है वह उसपरसे फलित नही होता, क्योकि "शूद्रोका समोशरणमे उपस्थित होना" उसमे कही नही बतलाया गया-'शूद्र' शब्दका प्रयोग तक भी उसमें नही है। उसमें साफ तौरपर नीचसे नीच व्यक्तियोके ममवसरणमे स्थान पानेकी बात कही गई है और वे नीचसे नीच व्यक्ति 'शूद्र' ही होते हैं ऐसा कही कोई नियम अथवा विधान नही है, जिससे "नीचसे नीच व्यक्ति'का वाच्यार्य 'शूद्र' किया जा सके। उसमें "नीचसे नीच' शब्दोके साथ 'मानव' शब्दका भी प्रयोग न करके 'व्यक्ति' शब्दका जो प्रयोग किया गया है वह अपनी खास विशेषता रखता है। नीचसे नीच मानव भी एक मात्र शूद्र नहीं होते, नीचसे नीच' व्यक्तियोकी तो बात ही अलग है। 'नीचसे नीच व्यक्ति' शब्दोका प्रयोग उन हीन तिर्यञ्चोको लक्ष्यमे रखकर किया गया जान पडता है जो समवसरणमें खुला प्रवेश पाते हैं। उनके इस प्रकट प्रवेशकी बातको लेकर ही बुद्धिको अपील करते हुए ऐसा कहा गया है कि जब नीचसे नीच तिर्यञ्च प्राणी भी भगवानके समवसरणमे स्थान पाते हैं तब दस्सा लोग तो, जो कि मनुष्य होनेके कारण तिर्यञ्चोसे ऊँचा दर्जा रखते हैं, समवसरणमे जरूर स्थान पाते हैं, फिर उन्हे भगवानके पूजनादिकसे क्यो रोका जाता है ? खेद है कि अध्यापकजीने इस सहजग्राह्य अपीलको अपनी बुद्धिके कपाट बन्द करके उस तक पहुँचने नही दिया और दूसरेके शब्दोको तोड-मरोडकर व्यर्थमें चैलेंजका षड्यन्त्र रच डाला ॥
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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