SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०६ युगवीर-निवन्धावली आधारपर अपने निषेध-पक्षको प्रतिष्ठित नही किया-उनका एक भी वाक्य उसके समर्थनमे उपस्थित नहीं किया, उसके लिये आप दूसरे ही ग्रन्योका गलत आश्रय लेते फिरे हैं जिनमें एक 'धर्मसंग्रह-श्रावकाचार' जैसा अनार्प ग्रन्थ भी शामिल है, जो विक्रमकी १६वी शताब्दीके एक पण्डित मेधावीका बनाया हुआ है । यह है अध्यापकजीके न्यायका एक नमूना, जिसे आपने स्वय जजका जामा पहनकर अपने पास सुरक्षित रख छोडा है और यह घोपित किया है कि "इस चैलेजका लिखित उत्तर सीधा हमारे पास ही आना चाहिये अन्यथा लेखोके हम जिम्मेवार नही होगे।" इसके सिवाय, लेखमें सुधारकोको 'आगमके विरुद्ध कार्य फरनेवाले', जनताको धोखा देनेवाले' और 'काली करतूतो वाले' लिखकर उनके प्रति जहाँ अपशब्दोका प्रयोग करते हुए अपने हृदय-कालुष्यको व्यक्त किया है वहाँ उसके द्वारा यह भी व्यक्त कर दिया है कि आप सुधारकोंके किसी भी वाद या प्रतिवादके सम्बन्धमे कोई जजमेट ( फैसला ) देनेके अधिकारी अथवा पात्र नही हैं। गालबन इन्ही सब बातो अथवा इनमेसे कुछ बातोको लक्ष्यमे लेकर ही विचार-निष्ठ विद्वानोंने अध्यापकजीके इस चैलेज-लेखको विडम्बना-मात्र समझा है और इसीसे उनमेसे शायद किसीकी भी अब तक इसके विपयमे कुछ लिखनेकी प्रवृत्ति नहीं हुई, परन्तु उनके इस मौन अथवा उपेक्षाभावसे अनुचित लाभ उठाया जा रहा है और अनेक स्थलो पर उसे लेकर व्यर्थको कूद-फांद और गल-गर्जना की जाती है। यह सब देखकर ही आज मुझे अवकाश न होते हुए भी लेखनी उठानी पड़ रही
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy