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________________ जैनागम और यज्ञोपवीत प० सुमेरचन्द्रजी दिवाकर सिवनीका 'जैनागम और यज्ञोपवीत' नामका जो लेख 'अनेकान्त'के छठे वर्पकी वी किरणमे प्रकाशित हुआ है, उस पर विचार . - उक्त लेखमे विद्वान् लेखकने भगवज्जिनसेन-प्रणीत आदिपुराणके जिन वाक्योको आगमप्रमाणके रूपमे उपस्थित किया है वे विवादापल्ल योटिमे स्थित है और इसलिए उस वक्त तक प्रमाणमे उपस्थित किये जानेके योग्य नही, जब तक विपक्षकी ओरसे यह कहा जाता है कि 'दक्षिणदेशको तत्कालीन परिस्थितिके वश मुख्यतः श्रीजिनसेनाचार्यने यज्ञोपवीत (जनेऊ को अपनाकर उसे जैनाचारमे दाखिल किया है उनके समयसे पहले प्रायः ऐसा नहीं था और न दूसरे देशोमे हो वह जैनाचारका कोई आवश्यक अंग समझा जाता था।' श्रीजिनसेनाचार्यके विषयमे दूसरे पक्षके कथनका उल्लेख करके जो यह कहा गया है कि-"इस कथनके बारेमें क्या कहा जाय जो भगवत् जिनसेन जैसे महापुरुषको बातको भी अपने पक्षविशेषके प्रेमवश उडा देनेका अद्भुत तरीका अंगीकार करते हैं। वीतराग निस्पृह उदात्तचरित्र महापुरुष अपनी ओरसे आगमो मिश्रण करके उसे महावीर-वाणीकी परम्परा कहें यह बात तो समझमे नही आती"। इसे यदि लेखकमहोदय न कहते तो ज्यादा अच्छा होता। क्योकि इस प्रकारके अवसर पर ऐसी श्रद्धा-विषयक बाते कहना अप्रासगिक जान पडता है और वह प्राय. बिना युक्तिके ही अपनी बातको मान लेनेकी ओर
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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