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________________ गलती और गलतफहमी ३९५ भी देखना चाहिये कि किस-किस अवस्थामें अनन्तकाय होते हैं और किस-किस अवस्थामें अनन्तकाय नहीं रहते। अनेक वनस्पतियाँ भिन्न-भिन्न देशोंकी अपेक्षा जुदा जुदा रंग, रूप, आकार, प्रकार और गुण-स्वभावको लिये हुए होती है । वहुतोंमे वैज्ञानिक रीतिसे अनेक प्रकारके परिवर्तन कर दिये जाते हैं। नाम-साम्यादिकी वजहसे उन सबको एक ही लाठीसे नही हाँका जा सकता' । संभव है एक देशमें जो वनस्पति अनन्तकाय हो, दूसरे देश में बह अनन्तकाय न हो अथवा उसका एक भेद अनन्तकाय हो और दूसरा अनन्तकायन हो। इन तमाम बातोंकी विद्वानोंको अच्छी जॉच-पड़ताल (छानवीन) करनी चाहिये और जॉचके द्वारा जैनागमका स्पष्ट व्यवहार लोगोंको वतलाना चाहिये।" इसके सिवाय आगमकी कसौटीके अनुसार उक्त लेखमे दोएक कन्द-मूलोकी सरसरी जाँच भी दी थी और विद्वानोको विशेष जाँचके लिए प्रेरित भी किया था। इस प्रकारकी शास्त्रीय-चर्चाभीसे प्रभावित होकर ग्यारहवी प्रतिमाधारक उत्कृष्ट श्रावक ऐलक पन्नालालजीने अपने पिछले जीवनमे अग्निपक्व प्रासुक आलूका खाना प्रारम्भ कर दिया था, जिसकी पत्रोमे कुछ चर्चा भी चली थी। जान पडता है ऐलकजीको जब यह मालूम हुआ होगा कि यह कन्द-मूल-विषयक त्यागभाव जिस श्रद्धाको लेकर चल रहा है वह जैन-आगमके अनुकूल नही है और आगममे यह भी लिखा है कि किसीके गलत बतलाने, समझाने और गलत समझ लेनेके कारण यदि किसी शास्त्रीय-विषयमें अन्यथा श्रद्धा चल १. जैसे टमाटर और बैंगनको एक नहीं कहा जा सकता । गोभी नामके कारण गाठगोभी और बन्दगोभीको फूलगोभीके समकक्ष नहीं रखा जा सकता।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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