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________________ अनोखा तर्क और अजीव साहस भी निश्चित रूपमे कुछ भी नहीं कहा गया है-मात्र प्रतिज्ञाके रूपसे उत्पन्न होनेवाली सभावनाको ही व्यक्त किया गया है। इस पर आपत्ति करते हुए लेखकजीने नल-कूवरकी स्त्री उपरभाका एक उदाहरण प्रस्तुत किया है और उस स्त्रीकी दूतीको रावणने जो वचन कहे थे उन्हे 'पद्मपुराण' के १२ वे पर्वमे पढनेकी प्रेरणा करते हुए लिखा है कि -"इन वचनोसे प्रतिज्ञाके पूर्व भी रावण परस्त्री-लम्पटी वा व्यभिचारी सिद्ध नही होता। यदि हो सकता है तो प्रमाण लिखिये।" प्रथम तो ऐसा कोई नियम नही है कि एक व्यभिचारी अथवा परदार-लम्पट मनुष्य यदि किसी अप्रिय, अनिष्ट अथवा परिस्थिति आदि किसी कारणके वश अवाछनीय स्त्रीसे विषयसेवन नही करता-उसकी प्रार्थनाको ठुकरा देता है तो एतावन्मात्रसे वह ब्रह्मचारी अथवा स्वरदार-सन्तोपी हो जाता है। दूसरे, ऐसा भी कोई नियम नही है कि एक मनुष्य अपने प्रारम्भिक जीवनमे यदि सदाचारी रहा हो तो वह वादको व्मभिचारी नही होसकता अथवा होजाने पर उसे पहलेकी किसी घटनाके आधारपर व्यभिचारी या परदार-लम्पट न कहना चाहिये। तीसरे, उपरम्भाकी घटना और प्रतिज्ञाके बीचमे बहुत वर्पोका अन्तर वीता है। इस अर्सेमे रावणकी कैसी स्थिति रही होगी इसका सहज अनुभव रावणके उन प्रतिज्ञा-समयके विचारोसे होसकता है जिनका न० १ मे उल्लेख किया जाचुका है और उनसे साफ मालूम होता है कि रावण बहुत ही विषयासक्त मनुष्य था, परस्त्री-सेवनका सर्वथा त्याग उससे नही बनता था और इसीसे उसने अपने नियमको उस वक्तसे बलात्कार न करने तक ही सीमित किया था। चौथे, उपरम्भाकी सखी अथवा दूतीको जो वचन रावणने कहे थे वे
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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