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________________ अर्थ-समर्थन जैनसमाज रस्म, रिवाज और रूढियोसे कैसा अभिभूत और पददलित है और उसमे रूढियोपर विवेचन प्रारम्भ होनेकी क्तिनी सख्त जरूरत है, इस बातको प्रगट करते हुए मैने 'शुभचिह्न' शीर्षक एक लेख २४ मार्च १९१३ के जैनमित्र अक न० १० मे दिया था। इस लेखके अन्तमे कुछ शास्त्रीय प्रमाण पडित रघुनाथदासजी सरनऊ निवासीको, उनके 'शास्त्रानुकूल प्रवर्त्तना चाहिये' इस वाक्यके अनुसार, भेंटकिये गये थे और प्रार्थना की गयी थी कि वे निष्पक्ष भावसे उनपर विचार करेंगे । हालमे उक्त पडितजीने एक लेख वही 'शुभचिह्न' शीर्षक देकर, ता० १६ जून सन् १९१३ के जैनगजट अक ३१ मे मुद्रित कराया है। यद्यपि पडितजीका यह लेख मेरे लेखके उत्तररूप नही है और न इसे स्वतत्र लेख ही कह सकते हैं, तथापि दोनोका मिश्रण अवश्य है । इस लेखमे पडितजीने मेरे दिये हुए प्रमाणोमेसे किसीको अप्रमाण नही ठहराया, प्रत्युत् एक स्थानपर यह लिखकर कि 'हम उन श्लोकोको प्रमाण मानते हैं। अपनी स्वीकारताका भाव प्रदर्शित किया है--यह एक सन्तोषकी बात है। परन्तु मेरे दो श्लोकोके स्पष्ट अर्थको बिना किसी प्रमाणके आपने विपरीत जरूर बतलाया है और साथ ही कुछ और भी खीच-तान की है। जिन सस्कृतज्ञ विद्वानोने पडित रघुनाथदासजीके उक्त लेखको पढा होगा उन्हे यह देखकर शायद कुछ आश्चर्य हुआ हो कि पडितजीने किस आधारपर उक्त श्लोकोके अर्थको विपरीत
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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