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________________ ३४२ युगवीर-निवन्धावली अंकमे प्रकट हो चुका है और वह जिस रूप एव टाइपमे प्रकट हुआ है उस परसे भाई भगवानदीनजी स्वय समझ सकेंगे कि पं० दरवारीलालजीके विषयमे उनकी धारणा और उनके उत्तरके सम्बन्धमे उनकी कल्पना कहाँ तक फलितार्थ हुई अथवा ठीक निकली है। मुझे उस विषयमे कुछ भी कहनेका अधिकार नही है और न कोई जरूरत ही है। मेरा सम्बन्ध तो आपके नोटकी निम्नलिखित अन्तिम पक्तियोसे है, जिनमे मेरे दो वाक्योको उद्धृत करके 'पूर्वापर-विरोध' की सूचना की गई है - "शीर्पक के सम्बन्धमे नीचेकी पक्तियाँ काफी है - "स्वार्थ तो वास्तवमे आत्मार्थ-आत्मीय प्रयोजन अथवा आत्माके निजी अमीष्ट एवं ध्येयका नाम है।" "स्वार्थसे निवृत्ति कैसी" "स्वार्थ-त्यागकी कठिन तपस्या विना खेद जो करते हैं।" "मेरी भावना" इन पक्तियोको पढकर मुझे बडा आश्चर्य हुआ और समझमे नही आया कि मेरे उक्त लेखमे जब 'स्वार्थ' के दो अर्थोंका स्पष्ट उल्लेख किया गया है--एक परमार्थिक दृष्टिसे और दूसरा लौकिक दृष्टिसे, और उसी लेखमे एक जगह यह वाक्य भी दिया हआ है कि-"स्वार्थके उक्त दोनो अर्थोसे भिन्न विश्वके हितकी और परिभाषा क्या है" तब लेखके विषयोका हिसाब और उनके अंशोकी गणना तक करनेवाले भाई भगवानदीनजीने स्वार्थके एक अर्थको क्यो भुला दिया और क्यो उसे दूसरे अर्थके साथमे उद्धृत नही किया ? क्या उन्होने जानबूझकर ऐसा किया ? या उनकी किसी असावधानीका ही यह परिणाम है ? पहली वातके कहनेकी मैं जुरअत नही कर सकता, क्योकि जहाँ
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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