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________________ स्वार्थसे निवृत्ति कैसी ? ३३९ है तो फिर ऐसे आरम्भादिके त्यागी महाव्रतीके लिये सडकोपर झाडू देने, गिट्टी तोडने, रसोई वनाने और खेती करने जैसे सावद्य कर्मोंका विधान किस आधारपर किया गया है ? क्या यह टोपीके स्थान पर जूता रखनेके समान नही है ? और इसके द्वारा समीचीन मुनिमार्गकी अवज्ञा नहीं की गई हैं ? ज़रूर है और ज़रूर अवज्ञा की गई है। शोक है कि आप ऐसे सावध कार्योंको आजकल उक्त मुनियोके लिये आवश्यक ठहराते हैं और उन्हे न करके आत्मसिद्धि एव इन्द्रियनिग्रह और कपायविजयके कार्यमे लगनेवाले साधुको “अनावश्यक कार्य करने वाला" तथा "वचक" तक बतलाते हैं !! यह कितने दु साहसकी बात है ।।। आपका एक यह भी कहना है कि 'आजका साधु तो एक मजदूरकी अपेक्षा अधिक परतन्त्र है। वह तो रोटीके टुकडोके लिये श्रावकोके मुंह ताकता है, हाँमे हाँ मिलाता है और इसलिये गुलाम है।' परन्तु जो साधु समाजके मोहमे पडकर समाजकी तुच्छातितुच्छ आवश्यकताओंके पीछे अपने न्याय्यनियर्मोको तोड डालता है और अपने ध्येयको भी छोड बैठता है, वह क्या समाज का गुलाम नही है ? यदि है तो फिर ऐसे गुलाम साधुओको उत्पन्न करनेके लिये यह उपदेश क्यो दिया जाता है कि "अगर आज समाजको आवश्कता बदल जाय तो साधु-संस्थाके सेवाकार्य क्यो न बदलने चाहिये ?' इत्यादि । इससे तो आप अपने ही कथनके विरुद्ध बोल गये । और एक गुलामीकी जगह दूसरी बडी गुलामी मुनियोके सिरपर लाद दी ।। उनके लिये परतत्रतासे छूटने का कोई मार्ग ही आपने नही रक्खा II इस तरह आपका यह उपदेश बहुत कुछ असगत बातोसे
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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