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________________ ३३३ ३ स्वार्थसे निवृत्ति कैसी ? जागृत करते हुए पुद्गलके अभिनन्दनको-परकी आराधनाकोहेय और स्वार्थसाधनाको उपादेय बतलाया है । साथही, उन लोगोको मूढ घोषित किया है जो स्वार्थसिद्धिसे विमुख होकर परकेबाह्य शरीरादिके-उपकार-साधनमे ही लगे रहते हैं - कर्म कर्महितावन्धि जीवो जीवहितस्पृहः। स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे स्वार्थ को वा न वांछति ।। ३१ ।। परोपकृतिमुत्सृज्य स्त्रोपकारपरो भव । उपकुन्पिरस्याऽज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् ॥ ३२ ॥ शायद इसी बातको लेकर नीतिका यह वाक्य भी प्रसिद्ध हो कि "स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता"- अर्थात् स्वार्थसे भ्रष्ट रहनाउसे सिद्ध न करना-मूर्खता है। ऐसी दशामे अथवा ऐसी वस्तु-स्थितिके होते हुए, यहाँ तक उपदेश दे डालना कि "निवृत्ति तो सिर्फ स्वार्थकी निवृत्ति है और नह इसलिये है कि विश्वहितमे घोर प्रवृत्ति की जा सके" वह बहुत कुछ असगत और अविचारित जान पडता है। स्वार्थकी उक्त परिभाषा एव व्याख्याके अनुसार तो आत्महितसे रिक्त मनुष्य विश्वभरका तो क्या थोडेसे भी प्राणियोका सच्चा हित साधन नही कर सकता। जो खुद ही रास्ता भूल रहा हो वह दूसरोको रास्तेपर कैसे लगा सकता है ? क्या रोग, विकार और शत्रु भी स्वार्थमे शामिल हैं ? यदि नही तो फिर क्या इनकी निवृत्ति नही होनी चाहिये, जिसके लिये स्वार्थकी निवृत्तिके साथ "सिर्फ" शब्दका प्रयोग किया गया है ? इनकी निवृत्तिके बिना तो लोकहित कुछ भी नहीं बन सकता? ___ यदि लौकिक दृष्टिसे स्वार्थका दूसरा अवास्तविक अर्थ ,अपना इन्द्रिय-विषय-भोग' ही लिया जावे और उसीको लेखकका
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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