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________________ एक विलक्षण आरोप ३१७ सहयोगके अभावमे टूट जाय और भले ही आगे चलकर वैरिण्टर साहव जैसोकी कृपा-दृष्टिसे इस पत्रका जीवन सकटमे पड जाय या यह वन्द हो जाय, परन्तु जब तक 'अनेकान्त' जारी है और मैं उसका सम्पादक हूँ तब तक मैं अपनी शक्ति भर उसे उसके आदर्शसे नही गिरने दूंगा और न साम्प्रदायिक कट्टरताका ही उसमे प्रवेश होने दूंगा। मैं इस साम्प्रदायिक कट्टरताको जैनधर्मके विकास और मानवसमाजके उत्थानके लिये बहुत ही घातक समझता हूँ । अस्तु । वैरिप्टर साहबने मुझसे इस बात का खुलासा मांगा है कि मैं दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनो सम्प्रदायोमेसे किसको प्राचीन, असली और मूल समझता हूँ। अत इस सम्बधमे भी चन्द शब्द लिख देना उचित जान पडता है। जहाँ तक मैने जैनशास्त्रोका अध्ययन किया है मुझे यह मालूम हुआ है कि भगवान महावीर-रूपी हिमाचलसे धर्मकी जो गगधारा बही है वह आगे चल कर बीचमे एक चट्टानके आ जानेसे दो धाराओमे विभाजित हो गई है-एक दिगम्बर और दूसरी श्वेताम्बर । अव इनमे किसको मूल कहा जाय ? या तो दोनो ही मूल हैं और या दोनो ही मूल नही है। चूंकि मूल-धारा ही दो भागोमे विभाजित हो गई है और दोनो उसके अग हैं इसलिये दोनो ही मूल हैं और परम्पराकी अपेक्षासे चूंकि एक धारा दूसरीमेसे नही निकली इस लिये दोनोमेसे कोई भी मूल नही है। हॉ, दिगम्वर-धाराको अपनी बीसपथ, तेरहपथ, तारणपथ अथवा मूलसघ, द्राविडसघ आदि उत्तर-धाराओ एव शाखाओकी अपेक्षासे मूल कहा जा सकता है, और श्वेताम्बरधाराको अपनी स्थानकवासी, तेरहपथ और अनेक गद्धादिके
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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