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________________ २९२ युगवीर-निबन्धावली अनुभव कर सकता है और यह भी जान सकता है कि आप दूसरोकी बातोको कितने गलतरूपमै प्रस्तुत करते हैं। इतनी भारी असावधानी रखते हुए भी आप ऐतिहासिक लेखोके लिखने अथवा उनपर विचार करनेका साहस करते हैं, यह वडे ही आश्चर्यकी बात है । अस्तु । इस सपूर्ण कथन, विवेचन अथवा दिग्दर्शनसे सहृदय पाठक सहज ही में यह नतीजा निकाल सकते हैं कि बाबू साहब का आक्षेप कितना नि सार, निर्मूल, मिथ्या अथवा बेबुनियाद है, और इसलिये उसके आधारपर उन्होने "दिगम्बरजैन" मे अपने लेखको भेजनेके लिये जो बाध्य होना लिखा है, वह समुचित तथा मान्य किये जानेके योग्य नही। मैं तो उसे महज शर्म-सी उतारनेके लिये ऊपरी तथा नुमाइशी कारण समझता हूँ-भीतरी कारण नैतिक बलका अभाव जान पड़ता है। मालूम होता है सपादकीय नोटोके भयसे ही उन्होने कही यह मार्ग अख्तयार किया है, जो ऐतिहासिक क्षेत्रमे काम करने वाले तथा सत्यका निर्णय चाहनेवालोको शोभा नहीं देता। वे यदि अपना प्रतिवादात्मक लेख 'अनेकान्त' को भेजते और वह युक्तिपुरस्सर, सौम्य तथा शिष्ट भाषामे लिखा होता तो 'अनेकान्त' को उसके छापनेमे कुछ भी उज्र न होता । आपके जिस दूसरे लेखपर मैने कुछ नोट दिये थे उसके विरोधमे एक विस्तृत लेख मुनि कल्याणविजयजीका इसी सयुक्त किरणमे प्रकाशित हो रहा है, आप चाहे तो उसपर और मेरे नोटोपर भी एकसाथ ही कोई प्रतिवादात्मक लेख 'अनेकान्त' को भेज सकते हैं उसपर तब काफी विचार हो जायगा । 'अनेकान्त' वर्ष १, किरण ६-७, मई १९३० ।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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