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________________ एक आक्षेप २८५ सम्यादक 'वीर' के दो लेखो पर भी कुछ नोट लगाये गये थे। पाटकोको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उन परसे बाबू माहब रुष्ट हो गये हैं और उन्होंने अपना रोग एक प्रतिवादात्मक लेनद्वाग' हालके 'दिगम्बर जैन' अक न० ७ में प्रकट किया है। और इस तरह अपनी निर्दोपता, निन्निता. तथा युक्लि-पीढताको ऐने पाठकोंके आगे निवेदन करके अपने चित्तको एकान्त णान्न करना चाहा है अथवा उनसे एकतरफा डिगरी लेनी चाही है, जिनके नामने न तो मुनि पुण्यविजयजी तथा मुनि कन्यागविजयजी वाले वे लेख है जिनके विरोधमे आपके लेयोका अवतार हुआ था, न आपके ही उक्त दोनो लेख है और न उनपरके नम्पादकीय नोट ही हैं, और इसलिये जो बिना उनके आरके तथनको जज नही कर सकते-उसकी कोई ठीक जांच नहीं कर सकते । इस लेखपरसे मुझे आपकी मनोवृत्तिको मालूम करके दुख तथा अफसोस हुआ ? यह लेख यदि महज सम्पादकीय युक्तियो अथवा आपत्तियोंके विरोधमे ही लिखा जाता और अन्यत्र ही प्रकाशित कराया जाता तो मुझे इसका कोई विशेष खयाल न होता ओर सभव था कि मैं इसकी कुछ उपेक्षा भी कर जाता। परन्तु इसमे सम्यादककी नीयतपर एक मिथ्या आक्षेप किया गया है, और इसलिए यहॉपर उसकी असलियतको खोल देना ही मैं अपना कर्तव्य ममझता हूँ। आक्षेपका सार इतना ही है कि-'यदि यह लेख 'अनेकान्तके' सम्पादकके पास भेजा जाता तो वे इसे न छापते, क्योकि वे अपनी टिप्पणियोके विरुद्ध किसीका लेख छापते नही, मेरा भी एक 'सशोधन' नही छापा था और उसीपरसे मैं इस नतीजेको पहुँचा हूँ | आक्षेपकी भापा इस प्रकार है - १. लेखका शीर्पक है 'राजा सारवेल और उसका वश' ।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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