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________________ २७८ युगवीर-निवन्धावली अभीष्ट है वह उपदेशका राजमार्ग न होकर उपर्युक्त प्रकारका कोई दूसरा ही मार्ग है, जिसे एक नामसे 'गौणविधि' कह सकते है ऐसा ससझना चाहिये । दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि ३७ वें पद्यमे जो यह कहा गया है कि भगवानने उन क्रियाओका उपदेश नही दिया वह मुख्य-विधिका कथन है और ३८ वें पद्यमे जो उनके कथंचित् उपदेशकी बात कही गई है उसे गौण-विधिका कथन समझना चाहिये । और इस प्रकारके गौण-कथनसे यह किसी तरह भी लाजिमी नहीं आता कि पूजनादि विषयकी सपूर्ण धार्मिक क्रियाएँ अपनी सम्पूर्ण व्यवस्थाओके साथ सर्वांगरूपसे सर्वज्ञ भगवानके द्वारा उपदिष्ट हुई है, भगवानने उसी तरहसे उनके करने-करानेका लोगोको उपदेश दिया है, और उनकी कल्पना अथवा रचनामे श्रावकोका जरा भी हाथ नही है । ऐसा समझना सचमुच ही समझका कोरा विपर्यास है। मालूम नही शास्त्रीजीने 'अनादिनिधनश्रुत' को भी कुछ समझा है या कि नही, अथवा वर्तमान जैन शास्त्रोको ही आप अनादिनिधनश्रुत समझते हैं। तत्त्वार्थवार्तिकमे तो भट्टाकलकदेवने द्रव्यादि सामान्यकी अपेक्षासे अनादिनिधनश्रुतकी सिद्धि बतलाई है-विशेषापेक्षासे नही, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी विशेषापेक्षासे उसे आदि तथा अन्तवान सूचित किया है-इसीसे श्रुत मतिपूर्वक कहलाता है और साथ ही, यह भी प्रतिपादन किया है कि अनादिनिधनश्रुतको कभी किसी पुरुषने कही पर किसी प्रकारसे उत्प्रेक्षित नहीं किया है। इससे अनादिनिधनश्रुतका १. यथाः-द्रव्यादिसामान्यापेक्षाया तसिद्धि । द्रव्यक्षेत्रकालभावाना विशेषस्याविवक्षायां श्रुतमनादिनिधनमित्युच्यते । न हि केन
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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