SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ युगवीर-निवन्धावली यह पूरी गाथा प० जयचन्द्रजीकी भापा-टीका सहित नीचे दी जाती है 'तेणुवइट्टो धम्मो सागसात्ताण तह असगाणं । पढ़मो बारह भेओ दस-भेओ भासिओ विदिओ। भाषाटीका ---"तिस सर्वज्ञ करि उपदेस्या धर्म है सो दोय प्रकार है। एक सगासक्त कहिये गृहस्थका अर एक असग कहिये मुनिका । तहाँ पहला गृहस्थका धर्म तो वारह भेद रूप है बहुरि दूजा मुनिका धर्म दस भेद रूप है।" इससे साफ जाहिर है कि इस गाथामे, सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट हुए धर्मके भेदोकी सख्याका प्रतिपादन करनेके सिवाय, ऐसे किसी भी नियमका विधान नही है जिससे यह लाजिमी आता हो कि 'सर्वज्ञने जो उपदेश दिया है वही धर्म है-उससे भिन्न कोई धर्म अथवा कर्त्तव्य-कर्म ही नही'। 'वही' जिसका वाच्य हो ऐसा तो कोई शब्द भी गाथाभरमे नही है और न धर्मके इन बारह भेदोमे गृहस्थका सारा-'अथ' से 'इति' तक रत्ती-रत्ती भर-कर्त्तव्य ही आ जाता है। गृहस्थका एक धर्म "लौकिक' भी है, जिसका सर्वज्ञके आगमसे प्राय कोई सम्बन्धविशेष नही है। वह आगमाश्रित न होकर लोकाश्रित होता है-लौकिक जनोकी देशकालाद्यनुसार होनेवाली प्रवृत्तिपर अवलम्वित रहता है जैसा कि श्री सोमदेवसूरिके निम्न वाक्यसे भी जाहिर है द्वौ हि धर्मों गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ।। -यशस्तिलक। अर्थात्-गृहस्थोके दो धर्म है—एक 'लौकिक' और दूसरा
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy