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________________ उपासना-विषयक समाधान २४७ करती है।' और साथ ही, इसका यो स्पष्टीकरण भी करते है कि 'हे भगवान् | आप यह आदेश नही देते कि तुम मदिर बनवाओ या दान देओ या पूजन करो ये सव क्रियाएँ मोक्ष-सुखके लिये भक्त लोग-आपमे अतिशय भक्ति जिनकी ऐसे वे स्वयकरते हैं।' तव मेरे शब्दोमे ही कौन-सा भुस मिला हुआ था, जिसपर बडजात्याजी इतना बिगडे अथवा आपेसे बाहर हुए हैं और उन्होने उक्त श्लोकको अपने अर्थके साथ देनेका भी व्यर्थ कष्ट उठाया है। यह सव भ्रान्त चित्तकी लीला नही तो और क्या है । अस्तु । बडजात्याजीका एक आक्षेप और भी है और वह यह कि 'मैं बैठा तो आजकलकी उपासना अथवा पूजा-भक्तिके ढगपर कुछ लिखने और छेडने लगा चैत्यालयोके निर्माण तथा दान२, १ शास्त्रीजीके अनुवादकी भी प्रायः ऐसी ही हालत है। आप लिखते हैं-"आप केवलज्ञानीने वीतराग होनेके कारण मोक्षरूप सुखफे लिये श्रीजिनमदिरजीका पूजन, दान आदि क्रियाओका उपदेश नहीं दिया, किन्तु आपमे भक्तिके धारक श्रावकोंने वे क्रियायें स्वय की हैं । इसका भाव यह है कि भगवान् वीतराग है उन्होने किसीको यह नही कहा कि तुम हमारे लिये मदिरजी आदि वनाओ और हिंसा करो किन्तु श्रावकोंने स्वय भक्तिभावसे अपने पुण्य-सचयके लिये विशेष उपकार मानकर स्वय दान-पूजनादिकोंको किया है।" २ दानकी कोई खास चर्चा मैंने उस लेख भरमे कही भी नहीं उठाई, सिर्फ पात्रकेसरीस्तोत्रके पद्यका अनुवाद देते हुए, फूटनोटमे मूलके अनुरोधसे "दानका देना" इतने शब्द लिखे ये। इसे भी बडजात्याजी मेरी ओरसे दान विषयकी छेड-छाड समझते हैं-किमाश्चर्यमतः परम् । तव तो यह कहना होगा कि मेरे लेखमे 'उपवास' तथा केशलोचका कोई निषेध या उल्लेख न होते हुए भी जो बडजात्याजीने पात्रकेगरी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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