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________________ शुभचिह्न २१ स्वप्नोका एक ही बतलाना तथा म्लेच्छ-कुलमे राज्य और वैश्य वर्णमे जैनधर्मका निर्धारित कर देना इत्यादि । ऐसी अवस्थामे वह लेख विद्वानोमे कैसे आदरणीय हो सकता है ? उसको तो लेख ही न कहना चाहिये, उसके प्रकाशित होनेमे हर्ष कैसा ? इसके उत्तरमे इतना ही निवेदन है कि यद्यपि यह सब कुछ ठीक है- वह लेख नही, पडितजीके नोट्स-पेपरकी नकल ही सही वा कुछ अन्य ही सही, परन्तु क्या उसका यह एक ही वाक्य-- उसका यह प्रधान नोट कि "शास्त्रानुकूल प्रवर्त्तना चाहिये" कुछ कम महत्त्वका है ? क्या इसकी कुछ कम कीमत है ? नही, मेरी समझमे यह वाक्य बडा ही अमूल्य और बडा ही सन्तोपजनक है। हमे अन्य बातोपर लक्ष्य न देकर उसके इस मूल वाक्यको ही ग्रहण करना चाहिये और समझना चाहिये कि जहाँ अभीतक रिवाज, प्रवृत्ति और आम्नायका गीत गाया जाता था वहाँ अब "शास्त्रके अनुकूल प्रवर्तना चाहिये' ऐसा कहनेके लिये मुंह तो खुला, जबान तो उठी, यह कुछ कम आनन्दकी बात नही है । धर्मोपकारियो और जैनधर्मका प्रसार चाहनेवालोको इसका अभिनन्दन करना चाहिये। ___ प्यारे उदारचित्त महानुभावो । आप जिस बातको अर्सेसे चाहते थे उसके पूरा होनेका समय अब निकट आता जाता है । उसके शुभचिह्नोका सूत्रपात होना प्रारभ हो गया है। पडितजीका उक्त वाक्य इस बातकी घोषणा करता है, इस बातको सूचित करता है कि रूढियोकी दलदलमे बेतरह फंसे हुए प्राणियोपर आपकी शुभ भावनाओका अवश्य ही असर पहुँचा है और वे लोग रस्म-रिवाजरूपी दलदलसे निकालना चाहते हैं, जिसमे पडे-पडे वे बहुत-कुछ हानियाँ उठा चुके हैं, निकलनेके लिये कुछ सहारा
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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