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________________ उपासना-विषयक समाधान २४५ पुष्प कहकर तथा गोलेके रगे टुकडोको दीपक बतलाकर भगवान् या देवताको चढाना भी कल्पनासे बाहरकी चीज नही है। यह दूसरी बात है कि कौन कल्पना किसकी की हुई है, कैसी परिस्थितिमे अथवा कैसी परिस्थितिके लिये की गई है, भ्रान्त है या अभ्रान्त, नूतन है या पुरातन, अच्छी है या बुरी, हितकर है या अहितकर, वर्तमानमे उपयोगी है या अनुपयोगी अथवा अपने लिये हेय है या उपादेय और इन सब बातोपर यथावश्यकता विचार करना ही बुद्धिमानोका काम है। महज 'कल्पित' अथवा 'श्रावको द्वारा कल्पित' कह देनेपर ही क्षोभ ले आना और भ्रान्तचित्त-सा बन जाना उचित नही है। हर एक विषयपर बडी शान्ति तथा धैर्यके साथ, उसके हर पहलूपर नजर डालते हुए, विचार करना चाहिए - क्षोभकी हालतमे कभी उसके यथार्थ स्वरूपका दर्शन नही हो सकता । यह उस क्षोभकी हालत तथा भ्रान्त-चित्तताका ही परिणाम है जो वडजात्याजीको इतना भी सूझ नहो पडा कि लेखकके-द्वारा प्रस्तुत किये हुए 'विमोक्षसुख' वाले पद्यके उक्त अनुवादमे कहाँ मदिर-मूर्तियोके वनवाने, दान देने और पूजा करनेका निपेध किया गया है अथवा यह कहा गया है कि उन क्रियाओका करना ठीक नहीं है, और इसलिये ठे यो ही बिना किसी आधारके, उक्त श्लोकको अपने अर्थके, साथ पेश करके, उसके सम्बन्धमे निम्न प्रकारसे पूछने, वतलाने अथवा आक्षेप करने बैठ गये हैं - (१) “पाठक देखेंगे कि इस श्लोकमे इन क्रियाओ की पुष्टि की गई है या खण्डन । मुख्तारजी अपने निजी तात्पर्यकी इससे चाहे पुष्टि समझ ले, पर सो नहीं है।" (२) "अव कहिये महाशय । आपको इस श्लोकमे इन सव
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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