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________________ २१४ युगवीर-निवन्धावली 'रुघई' का 'ह' ऐसे तीनो पदोके आद्य अक्षरोका सग्रह किया जावे तो उससे 'जिहरू' होता है-'जुहारु' नही और इससे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि यह गाथा साधारण-बुद्धिके किसी अनाडीकी बनाई हुई है, जिसने वैसे ही उसके द्वारा जुहारुके विषयमे अपना मन-समझौता कर लिया है। इसी तरहका मन-समझौता अगले 'जुगादि ऋषमं' नामके पद्यमे भी किया गया है, जो व्याकरणकी त्रुटियोसे बहुत कुछ परिपूर्ण है और जिसमे 'जुहारु' की जगह 'जुहार' शब्दका ही प्रतिपादन किया गया है। इन्ही अस्त-व्यस्त, सदिग्ध और ग्रन्थादिके प्रमाणरहित पद्योके आधारपर ब्रह्मचारीजीने "जुहारुको प्राचीन रिवाज" समझा है और उक्त प्रश्नके उत्तरमे यह कहनेके लिये भी वे समर्थ हो सके हैं कि "परस्पर जुहारु करनेका ही कथन ठीक है", यह सब देखकर बडा आश्चर्य होता है ? समझमे नही आता इन पद्योके किस अशपरसे आपने जुहारुके रिवाजका और 'जय जिनेन्द्र' की अपेक्षा उसकी प्राचीनताका अनुभव किया है। क्या भगवान महावीर अथवा किसी दूसरे तीर्थकरने 'जुहारु' का उपदेश दिया है और उसकी उक्त प्रकारसे दो भिन्न व्याख्याएँ की है, ऐसा किसी मान्य आचार्य-द्वारा निर्मित प्राचीन ग्रन्थमे कोई उल्लेख मिलता है ? क्या इतिहाससे यह वात प्रमाणित की जा सकती है कि भगवान महावीरके समयमे भी जुहारुका प्रचार था ? अथवा केवल सस्कृत-प्राकृतके पद्योमे निवद्ध हो जानेसे ही 'जुहारु' को प्राचीनताकी पदवी प्राप्त हो गई है ? यदि ऐसा है तव तो 'जय जिनेन्द्र' के लिये बहुत बडा द्वार खुला हैं। और सैकडो अच्छे-से-अच्छे पद्य पेश किये जा सकते हैं। इसके सिवाय, यदि मान भी लिया जाय कि 'जय जिनेन्द्र' का रिवाज
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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