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________________ १७९ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश इसके सिवाय, जब हमारे सामने मूलग्रथ मौजूद है तब उसके आधारपर लिखे हुए साराशो, आशयो, अनुवादो अथवा सक्षिप्त ग्रथोपर ध्यान देनेकी ऐसी कोई जरूरत भी नहीं है, वे उसी हद तक प्रमाण माने जा सकते हैं जहाँ तक कि वे मूलग्रथोके विरुद्ध नही है। उनके कथनोको मूलग्रथोपर कोई महत्त्व नही दिया जा सकता। जिनसेनाचार्यने साफ सूचित किया है कि उन दोनोके प्रेमने चिरपालित मर्यादाको भी तोड दिया था, वे एकान्तमे जाकर रमने लगे, भोगके अनन्तर ऋषिदत्ताको वडा भय मालूम हुआ, वह घबराई और उसे अपने गर्भकी फिकर पडी। शीलायुधके वशादिकका परिचय भी उसे बादको ही मालूम पडा। ऐसी हालतमें विवाह होनेका तो खयाल भी नही आ सकता । अस्तु । इस सब कथन और विवेचनसे साफ जाहिर है कि ऋषिदत्ता और शीलायुधका कोई विवाह नही हुआ था, उन्होंने वैसे ही काम-पिशाचके वशवर्ती होकर भोग किया और इसलिये वह भोग व्यभिचार था। उससे उत्पन्न हुआ एणीपुत्र एक दृष्टिसे शीलायुधका पुत्र होते हुए भी, ऋषिदत्ताके साथ शीलायुधका विवाह न होनेसे, व्यभिचारजात था। उसकी दशा उस जारज पुत्र-जैसी थी जो किसी जारसे उत्पन्न होकर कालान्तरमे उसीको मिल जाय । अविवाहिता कन्यासे जो पुत्र पैदा होता है उसे "कानीन" कहते हैं (कानीनः कन्यकाजात ; कन्याया अनूढायां जातो वा ), 'अनूढा-पुत्र' भी उसका नाम है और वह व्यभिचारजातोंमे परिगणित है। 'एणीपुत्र' भी ऐसा ही ,'कानीन' पुत्र था और इसलिये उसकी पुत्री 'प्रियंगुसुन्दरी' एक व्यभिचारजातकी, अनूढा-पुत्रकी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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