SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युगवीर-निवन्धावली विवाहसम्बन्धी कुरीतियो, सकीर्णताओ आदिपर खुला प्रहार किया गया है और 'रूढिके दासो' तथा 'रस्मरिवाजोंके गुलामो'को खरी खरी सुनाई गई हैं। विवाह-विपयक सामाजिक कुप्रथाएँ उस युगमें सुधारकोके आन्दोलनका लक्ष्य वन रही थी और मुख्तार साहबने सवल चुक्तियो एव शास्त्रीय प्रमाणो-द्वारा समाजकी आँखें खोलनेका स्तुत्य प्रयत्न किया है। उनका 'विवाह-क्षेत्र-प्रकाश' शीर्षक निबन्ध, जो १४६ पृष्ठोपर है, इस विपयका स्मृतिगास्त्र माना जा सकता है। ५ वे निवन्धमे जातीय पचायतोके अन्यायपूर्ण दण्डविधानपर तीखे प्रहार किये गये हैं और उनका अनौचित्य प्रदर्शित किया गया है। परस्पर अभिवादनमें 'जयजिनेन्द्र' पद के, विशेषकर अग्रेजी पढे-लिखे लोगो द्वारा, वढते हुए प्रयोगके विरुद्ध भी स्थितिपालकोंने आन्दोलन छेडा और उसके स्थानमें 'जुहारु' का समर्थन किया, अतएव मुख्तार सा० का ६ ठा लेख इस प्रतिक्रियाके उत्तरमे लिखा गया। मुख्तार सा०का एक निवन्ध 'उपासनाका ढग' शीपकते पत्रो मे प्रकाशित हुआ था। स्थितिपालकोकी ओरसे उसकी भी प्रतिकिया हुईवे लोग तो उससमय तक शास्त्रोंके छपानेका विरोध भी जोर-शोरसे कर रहे थे । अस्तु, इस सग्रहका ७वा लेख उनके उत्तरमे 'उपासना-विपयक समाधान'के रूपमे लिखा गया था। अपने मूललेखके—जो 'उपासनाका ढग' शीर्षकसे अलगसे भी प्रकाशित हुआ था-लिखनेमे अपना हेतु मुख्तार सा० ने स्वय स्पष्ट कर दिया था, यथा-"आजकल हमारी उपासना बहुत कुछ विकृत तथा सदोप होरही है और इसलिये समाजमे उपासनाके जितने अग और ढग प्रचलित हैं उन सबके गुण-दोपो पर विचार करनेकी वडी जरूरत है .. उपासनाका वही ढग उपादेय है जिससे उपासनाके सिद्धान्तमें-उसके मूल उद्देश्योमे--कुछ भी बाधा न आती हो। उसका कोई एक निर्दिष्ट रूप नही हो सकता... . "उपासनाके जो विधि-विधान आज प्रचलित है वे बहुत पहले प्राचीन समयमें भी प्रचलित थे, ऐसा नही कहा जा सकता।" अपने तद्विषयक लेखोमे इन्ही प्रतिपत्तियोको उन्होंने सप्रमाण एव सयुक्ति-सिद्ध किया है। कूपमडूक-जनसमाजों आधुनिककताके स्तरपर खीच लानेके एक सुन्दर प्रयत्लकी झांकी इन निवन्धोमै मिलती है। वॉ और ९वॉ लेख सम्पादककी हैसियतसे अपने
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy