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________________ समयसार-वैभव ( ४६/२० ) व्यवहार नय का आश्रय किसे हेय है और किसे उपादेय ? जो मुनिजन निश्चय अलक्ष्य कर शुभ प्रवृत्ति में रहते लीन । उन्हें हेय व्यवहार दिखा गुरू निश्चय में करते तल्लीन । मुनि, श्रावक या अन्यजनों को जो है स्वानुभूति से हीन । उन्हें अशुभ तज शुभ प्रवृत्ति ही श्रेयस्कर तावत् अमलीन । ( ४६/२१ ) पात्र अपात्र दृष्टि रख होती धर्म देशना नित अम्लान । जो जिस योग्य उसे वैसी ही निश्चय या व्यवहार प्रधान । अभिप्राय यह है कि नयों की दृष्टि समझकर तत्व अशेष । जान मान आचरण किये बिन होगा जन उद्धार न लेश । ( ४७ ) दृष्टात द्वारा व्यवहार एव निश्चय का प्रदर्शन चल पड़ता चतुरंग सैन्य सज जगती पर जब नृपति उदार । उसे विलोकन कर विस्मित हो तब यूं कहता है संसार-- 'अरे ! भूप कोसों विस्तृत बन किधर कर रहा है प्रस्थान ?' यह व्यवहार कथन, निश्चय से नृपति न सैन्य व्यक्ति, इकजान । (46/21) धर्मदेशना-धर्मोपदेश । अशेष-सब। (47) विस्मित-आश्चर्य चकित । विस्तृत-फैला हुआ। प्रस्थान-कूच । सैन्य-सेना ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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