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________________ जीवाजीवाधिकार २६ ( ४६/११ ) भक्षण कर अभक्ष्य का रुचि से लेते स्वाद स्वयं अविराम । विषय वासना पूर्ति हेतु जो तन्मय रहते सतत सकाम । नहि वैराग्य ज्ञान की जिनके जीवन में है झलक, प्रवीण ! फिर भी सम्यकदृष्टि स्वयं को माने भांत पथिक वे दोन । ( ४६/१२ ) यह है सब व्यवहार धर्म निर्पेक्ष मान्यता का परिणाम । जिससे आत्म-म्रांतिवश जीवन मार्ग भ्रष्ट होता अविराम । जिनका दुष्कर्मों में रहता योग और उपयोग मलीन । उनके मार्ग भ्रष्ट होने में रंच नहीं संदेह, प्रवीण ! ( ४६/१३ ) किसको कौन-सा नय आश्रयणीय और प्रयोजनवान् है ? परमभाव वझे द्वारा है-निश्चय प्राश्रयणीय महान । जो समाधि में लीन बन करें, ससत स्वानुभव का रसपान । अपरमभाव संस्थित जन को है व्यवहार प्रमुख उपदेश । पात्र भेद से प्रतिपादित है उभय नयाश्रित धर्म अशेष । (46/13) आभयवीय-आश्रय लेने योग्य । परमभावदर्शी-खोपयोगी । अपरमभाव संस्थित-प्राथमिक-साधक दशा में स्थित ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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