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________________ जीवाजीवाधिकार १४ ( २३ ) अप्रतिबुद्ध (बहिरात्म) दशा की भर्त्सना तम प्रज्ञान जनित चिद्मम वश समझ पड़ गई कसी धूल ? बद्ध-प्रबद्ध सकल पुद्गलको-चेतन मान, कर रहा भूल ! देह ,गेह, परिवार प्रादि को मेरे-मेरे कहै प्रयान-- रागद्वेष मोहादि विकृतिरत अतिविक्षिप्त चित्त मतिम्लान । ( २४ ) आत्म सबोधन वीतराग के दिव्य ज्ञान में आत्मतत्त्व पुद्गल से भिन्नझलक रहा वर ज्ञान ज्योति मय, चिदानंद रस पूर्ण, अखिन्न । कैसे हो सकता चेतन का पुद्गल सँग अविभक्त स्वभावजो तू जड़ परिकर को कहता-मेरे--मेरे, चेतनराव ? ( २५ ) तर्क पूर्ण आत्म सबोधन चेतनमय परिणत हो सकता यदि पुद्गल, तब ही अविरामयह कह सकते थे कि हमारा ही है देहाविक परिणाम । सोचो भव्य ! एक क्षण भी यदि तज मतिमोह मयी प्रज्ञान । तो जड़ चेतन में होजाये सहज भेव विज्ञान महान । (23) चिभ्रम-जड़ में चेतन की भ्रांति । बद्ध-आत्मा से बंधा हुमा। विक्षिप्त-पागल, अमित । (24) अखिल-मुखी। परिकर-समूह। (25) अविराम-तुरंत ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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