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________________ ११० शानाश्रय लेने मे अनेक लाभ ९४ सम्यक्दृष्टि की स्थितिकरणत्व १०७ एक भ्राति एव उसका निराकरण ९५ , वत्सलत्व १०७ जीव स्यादाद द्वारा शुख व पशुद्ध प्रभाबना सिद्ध है. भव्यजीव संबोधन बन्धाधिकार शानी की परिग्रह मे परत्व भावना ९७ बध का स्वरूप १०८ कर्मफलो मे ज्ञानी रागद्वेष नही बध का कारण और दृष्टात १०८ करता १०० बघ हेतु का स्पष्टीकरण १०९ शानी के नवीन कर्म बध हेतु के अभाव मे उसका का कारण. १००, मभाव. मज्ञानी के कर्मबंध होने का कारण १०१ सम्यक्दृष्टि को बध क्यो नही शान अन्य के द्वारा प्रज्ञान रूप होता. नही परिणमता. १०१ सम्यक्-मिथ्या दृष्टि की श्रद्धा प्राणी स्वय ही प्रशापराधवश मे प्रतर. ११० प्रज्ञानरूप परिणमता है. १०१ हिंसादि अपने भावो पर निर्भर है ११३ वस्तु के परिणमन मे निमित्त एक प्रश्न उपादान का स्पष्टीकरण. १०२ प्रश्न का समाधान ११४ उपादान निमित्त का विवेचन । प्रध्यवसान मम्पूर्ण अनर्थों की अज्ञानी सुख हेतु कर्मकर्ता और भाक्ता है. . अध्यवसान स्वार्थ क्रियाकारी नही शानी विषयसुख हेतु कर्म नहीं अध्यवसानो की भर्त्सना कर्ता अत कर्म भी उसे फल अध्यवसानो के प्रभाव में बध नही देते. का अभाव. सम्यक्दृष्टि की निःशकता प्रध्यवसान का स्वरूप ११६ रमकी निशकता निर्जरा का अध्यवसान व्यवहारनय का विषय कारण होने से निश्चय द्वारा वह निष्कांक्षिता और उसका फल १०५ प्रतिषिद्ध है. सम्यक्दृष्टि की निविचिकित्सिता १०५ सम्यक्त्व शुन्य को केवल चारित्र " का प्रमूढ दृष्टित्व १०६ से मुक्ति नहीं. " उपगूहनत्व १०६ प्रभव्य के मुक्त न होने का कारण ११८ १०३ ११५ १०४ १०४
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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