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________________ तथापि मैं पर को माहें, उसे दुनो सुली करूं, उसे जीवन दान दूं, ऐसी भावना प्राणी में उत्पन्न हो सकती है, और इन भावनाओं से वह अपने को पुण्य पाप से लिप्त करता हैबंधक होता है। इसका यह विपरीतार्य नहीं लेना चाहिए कि जीव को जब हम मार नहीं सकते तब हमें हिंसा का पाप ही क्यों लगेगा? ययायं में पाप उसके मरने पर नहीं है, तुम्हारे मारने के भाव पर निर्भर है। वह मरे या न मरे, आप मारने के परिणामों से पापबंध करता तत्काल हो जाते हैं। मरण और दुख सुख तो उसे अपने कर्मोदय से प्राप्त होगे। आप उसके कर्म के स्वामी नहीं हो सकते । अतः अपने को कायाच्यावसान से बचाने वाला ही बंध से सारांश यह कि हिंसा पर को नहीं होती, हिंसा अपने दुष्परिणाम के कारण अपनी ही होती है। अपने स्वभाव का घात अपनी हिसा है। निश्चयनय से आत्मा के यथार्थ प्राण उसके शान दर्शन ही हैं, न कि इन्द्रिय बल आयु आदि ।ये तो व्यवहार में प्राण कहे जाते हैं । तब अपने मान वर्शन प्राणों का धात हम स्वयं रागी द्वेषी बन कर करते हैं । फलतः घात हमारा ही होता है, पर का नहीं । अतः स्वघाती होने से हम बंधक हैं। मोक्ष-अधिकार इसमें बताया है कि जो बंध के कारण और उनका स्वरूप जान कर अपनी आत्मा का बचार्य स्वरूप पहिचान कर बंध भावों से विरक्त होता है, वही कर्मों से छटसा है। लक्षण भेद से बंध का स्वरूप और धरहित आत्मा का स्वरूप पहिचाना जा सकता है। अपनी प्रज्ञा से दोनों को एपक पृथक् मालकर बंध से विरक्त होना चाहिए। और अपना स्वरूप मात्मा से मिल लक्षण वाले, मिल सत्ता वाले, मा स्वरूप पोद्गलिक शरीरादिको वनिय के विषय भूत पदार्थों को कोन बुद्धिमान अपने कहेगा? परव्य से ममत्व करने वाला चोर कहलाता व बंधन में पड़ता है । वह सदा शंकित भी रहता है। प्रतिकमणादि का करना जहां नीचली (अधस्तन) अवस्था में अमृतकुंभ कहा गया है, वहीं ऊपरी (उपरिम) बशा में प्रति ममण की स्थिति का मानाही विषकुम्भ कहा गया है। मानी की शा तो निर्दोष ही रहनी चाहिए। प्रतिक्रमण तो "अपराध की स्थिति है'
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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