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________________ - अग्निगत सुवर्ग अपनी सुवर्णता को जैसे नहीं त्यागता, इसी प्रकार कर्मोदय से तप्यमान होने पर भी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान भाव से विचलित नहीं होता, तब मानव कैसे होगा? निश्चयनय से आत्मा के शुद्ध स्वभाव पर जिसको दृष्टि है, वह शुद्धात्मा का ही आलंबन करता है-उसे जान मय भाव ही होते हैं जो ज्ञानी अपने को पुण्य-पाप रूप शुभाशुभ योगों से बचाकर, अपने ज्ञान दर्शन स्वभाव में ही स्थिर होता है, उससे व्युत नहीं होता, वह आत्रक से बचकर सर्वकर्म विनिमुंक्त हो जाता है। कवायाध्यवसान हो कर्मबंध के कारण है, आत्म स्वभाव नहीं, दोनो में भेव है। ऐसा भेद विज्ञान प्राप्त कर जिन्होंने प्रक्रिया द्वारा (चरित्र द्वारा) अपने को कषायादि से भित कर लिया, वे ही सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। तथा जो ऐसा नहीं कर सके वे संसार बंधन में बन रहे हैं, हैं , और रहेंगे। इन विचारों का आलंबन कर जिन्होंने अपने को निरामद बनाया है, बेहो कर्मनिरा के अधिकारी बनते हैं। इस बात का प्रतिपादन आचार्य श्री ने अप्रिम छ अध्याय निर्जराधिकार में किया है । इस अधिकार में यह प्रतिपादित है कि रागादि भाव रहित सम्यग्दृष्टि के उदय में आने वाले कर्मयोग बंधक न होने से निर्जरा केही कारण है। उपयागत कर्म अपना फल देकर आरमा से भिन्न हो तो होता हैं। ऐसे समय अज्ञानी (रागी) नवीन कर्मबंध कर लेता है, अतएव उसे उदयागत कर्म की निर्जरा से कोई लाभ नहीं है। उसे यहां “निर्म।" शब से नहीं कहा। किन्तु जानी (विरागी) जीव कर्मों का उपय आने पर भी अपने ज्ञान स्वभाव में हो रत रहता है, उदय रूप भाव को प्राप्त नहीं होने से वह अबंधक रहता है । अतः उसके जो कर्म उपप में आकर खिरते है-निर्जरा होती है उस निर्जरा को यथार्य निर्जरा कहते हैं। जहां यह लिखा गया है कि: ___ "सम्यक्त्वी के भोग निर्जरा हेतु हैं" यहां उक्त तात्पर्य ही समझना चाहिए । बानी अपने ज्ञान वैराग्य के बल से उपयागत.कर्म
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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