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________________ सर्व विशुद्ध शानाधिकार १५२ ( ३७४ ) 'मझे यों कहा' यह विचार कर हर्ष विषाद करें मतिहीन । यह न समझता-शब्द पौद्गलिक जड़ परणति है ज्ञान विहीन । तुझे कुछ नहीं कहा शब्द ने, त क्यों रूस रहा नादान । शब्द रूप पुद्गल परणति में तव न हिताहित है अनजान । ( ३७५-३७६ ) शब्द शुभाशुभ तुम्हें न कहते-'हमें सुनो तुम देकर ध्यान'प्रोर न शब्द रूप परिणमता कभी जीव या उसका ज्ञान । 'मुझे देखिये' यों न रूप ने भी आकर की कभी पुकार, नहिं प्रवेश करता बर बस वह तेरे चक्षु पुटों के द्वार । ( ३७७-३७८ ) त्यों सुगंध दुर्गध न कहती उन्हें सूघने को कुछ बात, या न नासिका में प्रवेश कर बल प्रयोग करती वे, भ्रात ! रस भी कब दुनिया से कहता-मुझे चखो, मै हूँ स्वादिष्ट और न रसना से प्रालिंगन कर बनता वह इष्ट-अनिष्ट । (३४) सरहा-नाराज हो पहा । निहित स्थापित ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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