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________________ मे पिनाधिकार १४० जीव की विकार परिणति जीव की ही है त्यों चेतन में जो होते है-राग द्वेष परिणाम मलीन-- में चेतन के ही विकार है, तनिमित्त कर्मोदय हीन । निज परणति निज में निज से ही होती है निश्चित स्वाधीन । किंतु विकृति में पर निमितता टाली जा सकती न, प्रवीण ! (३३२ ) एकांत रूप में कर्म कर्तृत्व का पूर्व पक्ष ज्ञानावरण कर्म से चेतन किया जा रहा है अज्ञान । क्षय-उपशम के द्वार उसी के जीव प्राप्त करता है ज्ञान । निद्रा कर्म सुलाता, उसका उपशम हमें जगाता है। मोह प्रकृति से प्रेरित चेतन भव भव में भरमाता है । ( ३३३ ) साता कर्म-उदय जीवन में सुख साता करता उत्पन्न । हो संतप्त दुखों में रोता जीव असाता-उदय विपन्न । माम होता मिथ्यात्व कर्म के उदय जीव में विविध प्रकार । चरित मोह कृत संयम भावों में होते रागादि विकार । (३३१/२) विलि-विकार
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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