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________________ १७ पर कर्तृत्व भाव रखने वाला श्रमण मुक्ति का पात्र नही इस प्रकार नहिं सजक विष्णु सम श्रमण भी न पा सकते मुक्ति । कुंभकार सम यतः सिद्ध है राग द्वेष मय उभय प्रवृत्ति । करता विष्णु सुरासुर सब का ज्यों निर्माण कार्य सम्पन्न - त्यों कायों की श्रमण सृष्टि कर निश्चित हुमा विकरापन्न । बुद्धि भ्रम क्यों होता है ? पर द्रव्यों में 'मेरा तेरा' यू जो है उपचार नितांत । तत्व ज्ञान से शन्य जन उसे सत्य मान बनता दिग्भ्रांत । आखिर पर तो पर ही रहता, कल्पित है इसमें ममकार । निश्चय से परमाणु मात्र पर क्या तेरा अधिकार ? विचार । ( ३२५ ) लौकिक जन यों मान चल रहे मेरा है यह गृह अभिराम । अथवा भारत देश हमारा, या कि नगर, पुर, पत्तन, प्राम । किंतु वस्तुतः किसका क्या है, यह तेरा-मेरा संसार ? सचमुच ये परमार्थ दृष्टि से मोह जन्म हैं मांत, विचार ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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