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________________ सर्व विशुद्ध मानाधिकार १३४ ( ३१४--३१३ ) कर्म बंध का मूल कारण जड़-चेतन गत विकृत भाव से होता उभय परस्पर बंध । जिससे संसृति चत्र चल रहा, कर्ता और कर्म संबंध । जब तक जीव प्रकृति रत रह, नहि-करता दोषों का परिहार । तावत्, अज्ञानी, असंयमी, मिथ्यादृष्टि रहे सविकार । ( ३१५ ) बंध का अभाव कव होता है ? कर्म अनंत फलों में जब वह राग द्वेष कर हो न मलीन । ज्ञाता दृष्टा मात्र बन रहे, नहि करता तब बंध नवीन । अभिप्राय यह है कि कर्म फल में विरक्त ज्ञानी निर्धान्तनहिं भोक्तृत्व भाव विन करता तब कर्मोंका बंध नितांत । ( ३१६ ) अज्ञानी एवं ज्ञानी के भावों मे अन्तर सुख-दुख कर्म फल निरत होकर अज्ञानी जड़ कर्माधीन । अहं भाव कर सुखी दुखी बन-बंधन करता नित्य नवीन । जब कि भेद विज्ञानी सुख-दुख मात्र कर्म फल जान प्रवीण । ज्ञाता दृष्टा बनस्वभाव रत तनिक न करता बंध मलीन । (३१६) निहित-सल्लीन ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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