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________________ बंध-अधिकार ( २८७/४ ) निर्बंध । प्रबन्ध | वह नगण्य होने से उसको गौण कर कहा है अनंतादुबंधी बिन जैसे पूर्व कहा सद्दृष्टि हो जाता अनंत भव कारण का सुदृष्टि जन में अवसान । इसी दृष्टि को मुख्य कर कहा है प्रबन्ध सद्दृष्टि महान । ( २८७/५ ) इस संबध मे भ्रम और उसका निवारण १२४ इससे यह न समझना ज्ञानी करता है उद्दिष्टाहार । याकि पाप कर्माजित धनकृत भुक्ति ग्रहण करता स्वीकार । जान मान करता सदोष यदि वह उद्दिष्टाहार विहार । तब तत्क्षण संयम विहीन बन मार्ग भ्रष्ट होता साकार । ( २८७/६ ) अन्य द्रव्य भावाश्रित जितने भी विकार हैं अमित शेष । श्रात्म भिन्न कह दरशाई है यहां सुनिश्चय दृष्टि विशेष । शुद्ध नयाश्रित ज्ञानी में नित जाग्रत रहता परम, विवेक प्रतः न बंधक प्रतिपादित है श्राहारादि क्रिया प्रत्येक । इति बंध -अधिकार: (२८७ / ५) उद्दिष्टागर- जो भोजन पपने उद्देश्य से बनाया गया हो । (२८७ /६) अमित - प्रसीम-अस्वेष्यात ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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