SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११७ समयसार-वैभव ( २७१/१ ) अध्यवसान व्यवहार नय का वियय होने से निश्चय नय द्वारा वह प्रतिषिद्ध है पराश्रयी के सर्व शुभाशुभ होते ये परिणाम मलीन । शुद्ध स्वात्म प्राश्रय पा मुनिजन निज स्वभाव में रहते लीन । यों निश्चय से हो जाता सब पर-प्राश्रित व्यवहार निषिद्ध । शुद्ध स्वात्म संश्रयो साधुजन पाते पद निर्वाण प्रसिद्ध । ( २७२/२ ) पर्यायों का सतत परिणमन ही व्यवहार कहा अमलीन । निश्चय है ध व अंश वस्तु का, अतः तदाश्रयणीय, प्रवीण ! व्यवहारी संकल्प विकल्पों में ही उलझा रहता दीन । धव स्वभाव का आश्रय ले मुनि कर्म शक्तियां करते क्षीण । ( २७३ ) मम्यक्त्व शून्य अभव्य शुभ क्रियाओ का पालन कर भी मुक्त नही होता श्रीजिन कथित शील, व्रत, तप या समिति गप्ति व्यवहार चरित्र नित पालन कर भी अभव्यजन मुक्ति नहीं पाता है मित्र ! धर्म मूल स्वत्वानुभूति से जिनका जीवन शून्य नितांत । वे अज्ञानी वा असंयमी भ्रांत पथिक ही है सम्भ्रांत ! (२७२/१) प्रतिषिद्ध-निसका निषेध किया जावे ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy