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________________ समयसार-वैभव ( २१५/१ ) इन्द्रिय भोग सहज ही में जो ज्ञानी को होते है प्राप्तनश्वर जान न रमता उनमें वह विराग वैभव संप्राप्त । एवं आगामी विषयों को बांछा कर होता नहि म्लान । भूतकाल में भुक्त भोग भी याद नहीं करता मतिमान । ( २१५/२ ) अज्ञानी जीव की दशा जीव मोह वश रह अनादि से सतत स्वानुभव शन्य नितांत । परमें सुख की प्रांत कल्पना करता चला आ रहा मात । दुख सहते बीते अनन्त युगमृगतृष्णा पर हुई न शांत । फिर भी विषय वासना विषमें सुख को खोज रहा दिग्भ्रांत । (२१६/१) ___ ज्ञानी पर्यायों को जानता हुआ भी द्रव्य दृष्टि रखता है जो जाने वह वेदक, जाना जाता वेद्य वही, मतिमान ! वेवक वेद्य भाव का प्रतिक्षण होता रहता नाश, निदान । जो बांछा करता वह प्रिय की प्राप्ति काल तक रहे न दीन । जो प्रिय प्राप्त हुवा है उसको उत्तर क्षण पर्याय विलीन । (२१६/१) वेदक-अनुभव करने वाला। वेध-जिसका अनुभव किया जावे। उत्तरक्षण उस मण के अनन्तर (दूसरे क्षण में) त्वरित-शीघ्र ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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