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________________ समयसार-वैभव ( २०८ ) ज्ञानी के उच्च विचार । मैं पर बनजाऊं तो, निश्चित ही आत्म तत्व का होगा नाश । पर बन जाने पर न स्वयं में रह सकता चैतन्य प्रकाश । ज्ञानपुंज मैं देव स्वयं हूँ सर्व परिग्रह मुझ से अन्य । ज्ञायक भाव स्वभावी हूं मैं अन्य भिन्न सब पुद्गल जन्य । ( २०६ ) ज्ञानी का परिग्रह में परत्वकी भावना छिद जाये, भिद जाये अथवा विलय प्रलय को हो संप्राप्त । किसी दशा में भी न परिग्रह स्वत्व कभी कर सकता प्राप्त । देह गेह धन जन सब पर है, पर ही रहते सर्व प्रकार । यों ज्ञानी निश्चय कर रहता स्वस्थ, परिग्रह गिन कर भार । ( २१० ) ज्ञानी की परिणति वह ज्ञानी पुण्य क्यों नही चाहता इच्छा को ही कहा परिग्रह, जो निरच्छ वह परिग्रहहीन । ज्ञानी रह निरच्छ नहिक रता धर्मेच्छा भी रंच प्रवीण । प्रात्म ज्ञान सम्पन्न साधु के ऐहिक सुख समृद्धि को होनचाह न रहती, अतः पुण्य की बांछा करता नहीं मलीन ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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