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________________ आत्रवाधिकार ( १६४ ) आस्रव का स्वरूप प्रास्त्रव है मिथ्यात्व, अविरमण योग, कषाय अनेक प्रकार। जीव और पुद्गल दोनों का भिन्न भिन्न परिणाम विकार। इनमें जो जीवाश्रित होते मिथ्यात्वादि मलिन परिणाम । वे अनन्य ही है जीवों के सापराध उपयोग सकाम। ( १६५ ) पुद्गल भी ज्ञानावरणादिक कर्म प्रकृति बन विविध प्रकार । होता स्वयं परिणमित चेतन के शुभ अशुभ भाव अनुसार। प्रास्त्रव है यों परस्पराश्रित-कर्मोदय निमित्त पा जीवराग द्वेष करता, इससे फिर कर्म रूप परिणमे अजीव । ( १६६ ) वीतराग सम्यक्दृष्टि के बध का अभाव वीतराग समदृष्टि न करता पाखव एवं बंध नवीन । बद्ध कर्म ज्ञाता ही रह वह उदासीन बन रहे प्रवीण। बंध मूल मिथ्यात्व भाव है सर्व प्रमुख चैतन्य विकार। जिससे जीव मोह में फंस कर मत हो रहा विविध प्रकार। (१६४) अविस्मण-प्रविरति-पर वस्तु में प्रासक्ति । सकाम-विषयों की कामना सहित । (१६५) परिणमित-परिवर्तित ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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