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________________ पुण्य पापाधिकार ७६ ( १६२ ) अज्ञान से ज्ञान भाव का पराभव श्री जिनेन्द्र ने आत्म ज्ञान को आच्छादित करने वालाकहा कर्म अज्ञान अपरिमित अंधकार वत् ही काला । यथा सूर्य किरणों को रजकण ढक लेते है, या घनश्याम । प्रज्ञानाच्छादित रह त्यों ही चेतन अज्ञ बना अविराम । ( १६३.१ ) कषाय से वीतरागता की हानि । वीतरागता सुखद प्रात्म का सम्यक चरित धर्म अभिराम । उसे नष्ट कर दुष्ट कषायें जनती सतत मलिन परिणाम । मलिन भाव रत बन कषाय से चेतन बने चरित्र विहीन । हो कुकर्म रत नित कर्मों का प्रास्रव बंधन करता दीन । ( १६३/२ ) बंधन मुक्ति का उपाय पुण्य पाप वैविध्य कर्म में प्रतिपादित जिन वचन प्रमाण । वह व्यवहार दृष्टि से सम्यक, निश्चय से सब कर्म समान। उभय कर्म से विरत-स्वानुभव रत रह करता समरस पान । वही कर्म बंधन विमुक्त हो पाता पद निर्वाण महान ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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