SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७ . पुण्य-पापाधिकार ( १४५ ) कर्म परिचय कर्म वही जो लिपट रहे है पुद्गलाणु चेतन संग म्लान । कर्म मात्र बंधन का कारण, बंध दृष्टि सब कर्म समान । अशुभ-कुशील, सुशील-कर्म शुझ, द्विविध कर्मगत है व्यवहार । निश्चय से कैसा सुशील वह जिसने भरमाया संसार ? ( १४६ ) बधक दृष्टि से कर्मो मे समानता पग में पड़े स्वर्ण की बेड़ी या फिर पड़े लोह को म्लानलोह स्वर्ण का भेद भले है, बंध दृष्टि द्वय एक समान । त्यों शुभ हो या अशुभ , कर्म-प्राखिर बंधन ही है मतिमान ! भव संतति में यनिमित्त यह पीड़ित है चैतन्य महान । ( १४७ ) संबोधन प्रतः संत ! इन बंधन शीलों से न कभी तुम करना राग । दूर रहो संसर्ग मात्र से मोहजन्य ममता परित्याग । तव अनादि से जिनके कारण हुवा प्रात्म स्वातन्त्र्य विनाश । इन बंधन शोलों से फिर क्यों सुख पाने की रखता प्राश ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy